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गांवों से नगरों तक, झोपड़ियों से महलों तक, अज्ञों से सुज्ञों तक एवं राजाओं से रंक-पर्यन्त उनके उदीयमान व्यक्तित्व की अमिट छाप थी।
आपकी वक्तृत्व-शैली श्रोताओं को अपनी ओर खींचे बिना नहीं रहती थी। वह व्यक्तित्व को अन्दर से झकझोर कर रख दिया करती थी। श्रोता सोचने, करने की ऊहापोह में उलझकर कुछ कर गुजरने का साहस जटा लिया करता था।
प्रसंग वि.सं. १९७२ का है। मुनिश्री पालनपुर में चातुर्मास कर रहे थे। आपके मार्मिक प्रवचनों की चर्चा नवाब तक पहुँची तो वह भी तारीफ को कसौटी पर कसने प्रवचन सुनने आया ; और अभिरुचि जागृत हो उठने से बराबर आता ही रहा। चातुर्मास की समाप्ति पर एक दिन नवाब साहब एक बेशकीमती शाल' महाराजश्री के चरणों में अर्पित करके बोले-"बराये करम, मेरा यह अदना-सा तोहफा कुबूल फर्मायें, मश्कूर हूँगा।" ___ चौथमलजी महाराज यह देखकर नवाब साहब से स्नेहपूर्वक बोले--'नवाब साहब, हम जैन साधु हैं ! मर्यादित उपकरण रखते हैं। आज यहाँ, कल वहाँ, कभी जंगल में, तो कभी झोपड़ी में, कभी महल में, तो कभी टूटे-फूटे मंदिर में, मठों में रात गुजारनी होती है; इसलिए एसी कोई भी बहुमूल्य वस्तु हम नहीं स्वीकारते।"
नवाब साहब उनकी निर्लोभ वृत्ति से और अधिक प्रभावित होकर बोले'क्या मैं इतना बदकिस्मत हूँ कि मुझे खिदमत करने का मुतलक मौका भी किबला नहीं देंगे?"
प्रसन्न मद्रा में मुनिश्री बोले--'नहीं, आप जैसे नरेश बदकिस्मत नहीं भाग्यशाली हैं कि सत्संग में आपकी रुचि है। साधु, चाहे वह भी किसी धर्म का अनुयायी हो, समाज को तो कुछ-न-कुछ देता ही है न! आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो अपनी कुछ एक दुष्प्रवृत्तियाँ ही दे दीजिये। जीवन-पर्यन्त आप जीवों का शिकार और मद्य-मांसादि सेवन का त्याग कर दें।"
नवाब साहब ने मुनिश्री चौथमलजी महाराज के समक्ष तीनों का ही त्याग का अहद लिया। रियासत में महाराज श्री के प्रवचनों में आम जनता से रुचि लेने की अपील भी उन्होंने की। ऐसी थी उनकी वृत्ति जो सहज ही हृदय-परिवर्तन की भावभूमिका उत्पन्न कर दिया करती थी।
'कोई कवि बन जाए सहज सम्भाव्य है'-वाली स्थितियाँ जीवन में सामान्यतया बनती नहीं है। काव्य-प्रसव प्रकृति की अनुपम देन है। आपने इस सन्दर्भ में भक्ति रस के हजारों पद, उपदेशात्मक स्तवन और सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ़ कविताएँ, दोहे, कवित्त आदि लिख कर उन्हें जनसामान्य में पर्याप्त लोकप्रिय बना दिया था। आज भी मेवाड़, मालवा और हाड़ौती अंचलों में ऐसे लोग सैकड़ों की तादाद में मिल जाएंगे जिन्हें उनकी रचनाएँ कण्ठस्थ हैं। उनके सुधारमूलक गीत बहुत से समारोहों में आज भी गाये जाते हैं।
चौ. ज. श. अंक
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