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तले कुछ किसान-मजदूर और ग्रामवासी प्रवचन सुनने एकत्रित हुए। प्रवचन सुनना है एकत्रितों की यह इच्छा जानते ही आप तैयार हो गये। यदि मुझे ऐसे समय कोई कहता तो मैं धूप, धूल और लू देखकर मना कर देता; किन्तु गुरुदेव करुणासिन्धु थे, न कैसे कहते ? उन्होंने बड़े मनोयोगपूर्वक व्याख्यान दिया। समय नहीं काटा। इधरउधर की बातों से व्याख्यान पूरा नहीं किया। हम लोगों को भी उनके प्रवचन में कुछन-कुछ नया मिल ही जाता था। व्याख्यान के बाद एक साधु ने प्रश्न किया- 'माटी और फस की झोपड़ी के कारण आपकी चादर पर रेत और घास गिर गया है। आप दोपहर को प्रवचन न करते तो क्या था ?' गुरुदेव बोले – 'एक व्यक्ति भी मांस, शराब, तम्बाकू, जआ आदि छोड़ दे तो एक व्याख्यान में कितना लाभ मिल गया ? कितने जीवों को अभय मिला? मेरे थोड़े से कष्ट में कितना उपकार !'
गुरुदेव सर्वजनप्रिय थे। जगद्वल्लभ थे। उनके प्रति राजे-महाराजे, ठाकुर-जागीरदार, साहुकार जितने अनुरक्त थे, उतने ही अपढ़ किसान, कलाल, खटीक, मोची, हरिजन आदि भी थे । सभी कहते, गुरुदेव की हम पर बड़ी कृपा है, बड़ी मेहरबानी है । हर आदमी यह समझता था कि गुरुदेव की उस पर बड़ी कृपा है। कई लोग कहा करते 'राणाजी के गुरु होकर भी उन्हें अभिमान नहीं'। उनके संपर्क में आनेवाले ऐसे अनेक व्यक्ति थे, जो अनुभव करते थे कि 'मुझ पर गुरुदेव का अत्यधिक स्नेह है'।
पंजाब-केशरी पंडितरत्न श्री प्रेमचन्दजी महाराज ने अपना एक अनुभव सोजतसम्मेलन के व्याख्यान में सुनाया था। जब वे रतलाम का भव्य चातुर्मास संपन्न कर उदयपुर होते हुए राणावास के घाट से सीधे सादड़ी मारवाड़ होकर सोजत के लिए पधार रहे थे, तब उन्हें जिस रास्ते से जाना था वह कच्चा था, गाड़ी-गडार थी, सड़क नहीं थी, माइलस्टोन भी नहीं थे। कहे दो कोस तो निकले तीन कोस, कहे चार कोस तो निकले छह कोस, ऐसा अनिश्चित था सब कुछ । आपने कहा- “एक गाँव से मैंने दोपहर विहार किया। अनुमान था कि सूर्यास्त से पहले अगले गाँव में पहुँच जाएँगे, किन्तु गाँव दूर निकला। सूर्यास्त निकट आ रहा था। पाँव जल्दी उठ रहे थे मंजिल तक पहुंचने के लिए उत्कण्ठित । ऐसे में एक छोटी-सी पहाड़ी पर खड़ा आदिवासी भील मेरी ओर दौड़ा। मैंने समझा यह भील मुझे आज अवश्य लूटेगा। सुन भी रखा था कि भील जंगल में लूट लेते हैं । उसे आज सच होते देखना था; फिर भी हम लोग आगे बढ़ते रहे । भील सामने आकर बोला- 'महाराज वन्दना' । पंजाब-केशरीजी बोले- "मैं आश्चर्यचकित रह गया यह देख कि झोपड़ी में रहनेवाला एक भील, जिसे जैन साधु की कोई पहचान नहीं हो सकती, इस तरह बड़े विनय-भाव से वन्दना कर रहा है । जब उससे पूछा तो बोला, 'महाराज मैं और किसी को नहीं जानता, चौथमलजी महाराज को जानता हूँ।' उस भील की उस वाणी को सुनकर उस महापुरुष के प्रति मेरा मस्तक श्रद्धा से झुक गया। मेरी श्रद्धा और प्रगाढ़ हो गयी। सोचने लगा- 'अहा, झोपड़ी से लेकर राजमहल तक उनकी वाणी गूंजती है, यह कभी सुना था; आज प्रत्यक्ष हो गया।' भील' बोला- 'महाराज दिन
चौ. ज. श. अंक
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