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थोड़ा है। गांव अभी काफी दूर है। आज आप मेरी झोपड़ी पावन करें। महाराज, मेरी झोपड़ी गंदी नहीं है। मैंने मांस-मदिरा-शिकार सब छोड़ दिया है। अब वह पवित्र है। आपके चरणों से वह और पवित्र हो जाएगी।' मैंने कहा- 'भाई, तेरी झोपड़ी में इतना स्थान कहाँ, और फिर जैन साधु गृहस्थ की गृहस्थी के साथ कैसे रह सकते हैं।' भील ने कहा- “महाराज, हम सब बाहर सो जाएँगे। आप झोपड़ी में रहना ।' उसकी इस अनन्य भक्ति से हृदय गद्गद हो गया; मैंने कहा- 'अभी मंजिल पर पहुँचते हैं। तूने भक्तिभाव से रहने की प्रार्थना की, तुझे धन्यवाद । उन जैन दिवाकरजी महाराज को भी धन्यवाद है, जिन्होंने तुम लोगों को यह सन्मार्ग बताया है ।
एक उदाहरण पं. हरिश्चन्द्रजी महाराज पंजाबी ने भी सुनाया था। उन्होंने कहा- 'जब जोधपुर में पंडितरत्न श्री शुक्लचन्दजी महाराज का चातुर्मास था, व्याख्यानस्थल' अलग था और ठहरने का स्थान अलग। व्याख्यान-स्थल पर कुछ मुनि पं. शुक्लचन्दजी के साथ जाते थे और अन्य मुनिगण ठहरने के स्थान पर भी रहते थे। व्याख्यान-समाप्ति के बाद कुछ भाई-बहिन मुनियों के दर्शन के लिए ठहरने के स्थान पर जाया करते थे। व्याख्यान के बाद प्रतिदिन एक बहिन सफेद साड़ी पहनकर आती थी और बड़े भक्तिभाव से तीन बार झुककर सभी मुनियों को नमन करती थी। एक दिन पं. हरिश्चन्द्र मुनि ने पूछा- 'तुम व्याख्यान सुनने, दर्शन करने आती हो, श्रावकजी नहीं आते।' इस पर पास खड़े थे श्री शिवनाथमल नाहटा ने कहा- 'महाराज, इनके पति नहीं हैं।' 'क्यों, क्या हुआ ?' 'महाराज, यह पारियात (हिन्दू वेश्या) है। इनके पति नहीं होते और होते हैं तो अनेक । गुरुदेव जैन दिवाकरजी महाराज के व्याख्यान सुनने के बाद इस बहिन ने रंगीन वस्त्र त्याग दिये हैं । अब श्वेत साड़ी पहिनती हैं और ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करती हैं । इनकी जाति की अनेक बहिनों ने वेश्यागिरी छोड़ कर शादी कर ली है।' यह सुनकर इस कायापलट पर श्री हरिश्चन्द्र मुनि को बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने नासिक रोड पर जब यह मिलन हुआ तब गुरुदेव की प्रशस्ति करते हए यह संस्मरण सुनाया। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जो गुरुदेव की महानता का जयघोष करते हैं। इन पर अलग से कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ प्रकाश में आना चाहिये।
श्रमण के दशधर्मों में निर्लोभता भी एक है, किन्तु यह गुण आज विकृत या शिथिल हो गया है । नवाब और राजाओं द्वारा सम्मान और भक्तिपूर्वक दिये हुए बहुमूल्य शाल और वस्त्रों को भी जिन्होंने ठुकरा दिया, उनकी निर्लोभता का इससे बढ़कर और उदाहरण क्या हो सकता है ? __उन्हें यश और पदवी का कोई लोभ नहीं था। जब उनसे आचार्य-पद ग्रहण करने की प्रार्थना की गयी तब उन्होंने बड़ी निष्पक्ष भावना से कहा- “मेरे गुरुदेव ने मुझे मुनि की पदवी दी, यही बहुत है, मुझे भला अब और क्या चाहिये।" ऐसे अनेक प्रसंग उनके जीवन में आये किन्तु वे अविचल बने रहे । उनकी मान्यता थी कि 'केवल वस्तु-दान ही दान नहीं
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तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७
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