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पहुंचे तो लोगों ने कहा- 'यहाँ हमारे ५०० घर हैं, आप कहां जा रहे हैं ?' उन्होंने बड़ी गहराई से कहा- ५०० घर के सिवाय जो लोग यहाँ बसते हैं हरिजन-आदिवासी से लेकर मेवाड़ के महाराणा तक वे सब हमारे हैं।' सर्प की तरह फन उठाये क्रोध का इतना शान्त उत्तर यदि कोई दे तो आप उसे क्रोधजयी कहेंगे या नहीं ?
वैराग्य तो आपको विवाह से पहले ही हो गया था। वह उत्तरोत्तर समृद्ध होता गया। भरी तरुणाई में रूपसि पत्नी की रेशम-सी कोमल राग-रज्ज को काटना क्या किसी साधारण पुरुष का काम है ? उनका सुहागरात न मनाना और पत्नी को जम्बूस्वामी की तरह संयम-मार्ग पर लाना, एक इन्द्रियजयी की ही पहचान है। संयमावस्था में भी वे आत्मचिन्तन और स्वाध्याय में ही व्यस्त रहते थे; निन्दा, विकथा और अनर्गल-व्यर्थ की बातों की ओर उनका लक्ष्य ही नहीं था। कोई कभी-कभार आया भी तो उससे स्वल्प वार्तालाप और जल्दी ही पूर्ण विराम । ऐसा नहीं था उनके साथ कि घंटों व्यर्थ की बातें करते और अपना बहुमूल्य समय बर्बाद करते । साधु-मर्यादा के प्रति वे बड़े अप्रमत्त भाव से प्रतिपल चौकस रहते थे। क़दम-कदम पर आत्मोदय ही उनका चरम लक्ष्य होता था।
उन्होंने रसना-सहित पाँचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की थी। वे रात तीन बजे उठ जाते थे। सुखासन से बैठकर माला फिराते, चिन्तन करते, प्रतिक्रमण करते । लगभग तीन-चार घण्टे उनके इसी आसन में व्यतीत होते थे। एक दिन मैंने उनसे पूछा'गुरुदेव' आप इतनी जल्दी उठ जाते हैं तो कभी नींद का झोंका तो आ ही जाता होगा ?' बोले- 'कभी नहीं।' दिन में भी, यदि पिछले कुछ समय की बात छोड़ दें तो, वे कभी सोते नहीं थे। ७४ वर्ष की आयु में भी ३-४ घण्टे निरन्तर जप-ध्यान-चिन्तन-प्रतिक्रमण करना
और नींद को एक पल भी अतिथि न होने देना आश्चर्यजनक है। ऐसा सुयोग, वस्तुत किसी आत्मयोगी को ही सुलभ होता है।
क्षमा की तो वे जीती-जागती मूर्ति ही थे। उन्होंने कभी किसी के प्रति बैर नहीं किया। कोई कितनी ही, कैसी ही निन्दा क्यों न करे, वे उस संबन्ध में जानते भी हों फिर भी कोई द्वेष या दुर्भावना या प्रतिकार-भावना उनके प्रति नहीं रखते थे। जो भी मुनि उनसे मिलने आते थे उन सबसे वे हृदय खोलकर मिलते थे; जिनसे नहीं मिल पाते थे उनके प्रति कोई द्वेष जैसी बात नहीं थी । लोग कहते फलां व्यक्ति वन्दन नहीं करता तो गुरुदेव एक बड़ी सटीक और सुन्दर बात कहा करते थे – 'उनके वन्दन करने से मुझे स्वर्ग मिलनेवाला नहीं और वन्दन नहीं करने से वह टलनेवाला नहीं। मेरा आत्मकल्याण मेरी अपनी करनी से ही होगा, किसी के वन्दन से नहीं ।' स्वर्णाक्षरों में अंकित करने योग्य सूक्ति है यह।
दया के तो वे मानो अवतार ही थे। करुणासिन्धु गुरुदेव दया और उपकार के लिए इतने संकल्पित थे कि उन्हें अपनी बढ़ी हुई अवस्था का भी ख्याल नहीं रहता था । मदेशिया (राजस्थान) में जेठ की भर दुपहर में जब लू चल रही थी, घास-फूस के छप्पर
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तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७
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