SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "हाँ महाराज।" “जीवहिंसा करते हो?" इस प्रश्न का भी अमरचन्द ने सिर हिलाकर स्वीकृति-सूचक उत्तर दिया। महाराजश्री बोले-“आज से तुम्हें माँस, मदिरा और जीव-हिंसा का त्याग करना पड़ेगा। बोलो मंजूर है ?" "अवश्य त्याग करूँगा।" इतने शीघ्र ही सहज ढंग से स्वीकार करते देख महाराजश्री को सहसा विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने पुनः कहा-“इस प्रतिज्ञा को ले तो रहे हो पालन भी कर सकोगे?" अमरचन्द ने हाथ जोड़कर निवेदन किया-“महाराजश्री ! मैं आज प्रतिज्ञा लेने ही आया था। घर से सोच कर निकला था कि आज गुरुदेव से नियम लेकर ही रहँगा। तीन दिन से लगातार आपका उपदेश सुनता आ रहा हूँ। आपने जो माँस-मदिरा और जीवहिंसा की बुराइयाँ बतायीं तो ऐसे हृदय में भी इनसे दूर रहने की इच्छा जाग्रत हो गयी। मैं विश्वास दिलाता हूँ गुरुदेव कि अपनी प्रतिज्ञा का प्राण देकर भी पालन करूँगा।" उसकी दृढ़ता से गुरुदेव आश्वस्त हुए और अविचल बने रहने की प्रेरणा देते हुए उसे प्रतिज्ञा करवा दी। गुरुदेव को श्रद्धापूर्वक प्रणाम करके अमरचन्द चला गया। ___ जैन दिवाकर चौथमलजी महाराज इस समय गंगापुर (राजस्थान) में विराजमान थे। उनके प्रवचन नित्य आम बाजार में होते; किन्तु कुछ लोग जैन होते हुए भी उनके दिव्य प्रवचनों का लाभ नहीं उठा पाते थे । कारण था-संकीर्ण दृष्टि और संप्रदायगत भेदभाव । कुछ लोगों की चित्तवृत्ति ऐसी संकीर्ण होती है कि वे अपने संप्रदाय के साधुओं के प्रति तो श्रद्धा रखते हैं, किन्तु अन्य संप्रदायवालों के प्रति उपेक्षा। यही दशा उस समय गंगापुर के कई जैन परिवारों की थी। जब भी जैन दिवाकरजी गंगापुर में पधारते उनके प्रवचनों की पूरे गाँव में धूम मच जाती थी। सभी उनके दर्शनों से स्वयं को कृतकृत्य मानते; किन्तु संप्रदायवाद के कारण जैन धर्मावलम्बी होते हुए भी अनेक बन्धु उनसे दूर ही रहते थे। एक दिन अमरचन्द अपने भाई कस्तूरचन्द और तेजमल के साथ आम बाजार से निकला। प्रवचन हो रहा था। उपस्थित विशाल जन-समुदाय को देख वह भी उत्सुकतावश वहाँ चला आया । महाराजश्री मांस-मदिरा और जीवहिंसा के दोष बता रहे थे। तीनों भाई वहाँ कुछ क्षण को ही आये थे, लेकिन प्रवचन इतना चौ. ज. श. अक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy