SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एक सत्य कथा जीवन हुआ सोना उपदेश का प्रवाह रुका मानो ज्ञान गंगा को विश्राम मिला । श्रोतांगण एक साथ उठ खड़े हुए। मांगलिक श्रवण के पश्चात् वे महाराजश्री को नमन-वंदन कर और उनके चरणों में सिर झुका अपने-अपने घरों की ओर जाने लगे । शनैः शनैः स्थान खाली हो गया । महाराजश्री की दृष्टि सहसा सामने उठ गयी । वहाँ एक व्यक्ति बैठा था - मलिन वेशभूषा, उलझे बाल, सूखे अधर, जर्जर काया, दरिद्रता की साक्षात् मूर्ति । उनके हृदय में करुणा का स्रोत उमड़ा। स्नेह - सिक्त स्वर में बोले ―― " कौन हो भाई ! इतनी दूर क्यों बैठे हो ?" " मोची हूँ महाराज ! नाम है अमरा । " " दिन में कितना कमा लेते हो ?" " पाँच रुपये ।" संवत् १९७१ (सन् १९१४ ) में पाँच रुपया प्रतिदिन की आय कम नहीं होती थी, वरन् इसे अच्छी खासी आमदनी माना जाता था । महाराजश्री इसकी दीन दशा देखकर समझ गये कि अवश्य ही इसे कोई व्यसन लगा है, अन्यथा ऐसी अच्छी आय में इसकी हालत इतनी खस्ता न होती । वे मनुष्यों की विचित्र प्रवृत्तियों और आत्मघाती लोकपरलोक को बिगाड़नेवाले क्रिया-कलापों पर विचार करने लगे; तभी उनके कानों में उस व्यक्ति का दीनतापूर्ण स्वर पड़ा "महाराज ! कोई ऐसी राह बताइये जिससे मेरा और मेरे परिवार का जीवन सुखी बने, बच्चों का भविष्य सुधरे ।” ६० गंभीर स्वर में महाराजश्री बोले "राह तो है, अमरचन्द ! पर तुम चल भी सकोगे ?” " अवश्य चलूंगा ।" "जो पूछू गा उसका सच-सच जवाब दोगे ?” " आपके सम्मुख झूठ बोलने की हिम्मत ही नहीं होती ।" अब महाराजश्री ने पूछा "तुम शराब पीते हो ?" "हाँ महाराज ! " धीमे स्वर में अमरचन्द ने बताया । "माँस खाते हो ?” Jain Education International For Personal & Private Use Only तीर्थंकर : वव. दिस. १९७७ www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy