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________________ दो प्रसंग -रमेश मुनि मांगलिक श्रवण : आदिवासी का संकल्प घटना वि. सं. १९७७ की है, जब जैन दिवाकरजी महाराज रतलाम क्षेत्र को पावन कर रहे थे । मंगल प्रभात-वेला में मनिवृन्द के साथ जंगल की ओर जाते हुए एक दिन महाराज श्री ने नगर के बाहर एक बैलगाड़ी के नजदीक एक आदिवासी दम्पत्ति का करुण क्रन्दन भुना। 'मामा रो क्यों रहे हो? क्या कुछ खो गया है ?' महाराज श्री ने मधुर वाणी में पूछा। आदिवासी भाई आर्त स्वर में बोला-'महात्माजी, मेरा २० बरस का बीमार बच्चा अब नहीं बचेगा। ऐसा इलाज करने वालों ने कहा है । इसलिए हम लोग अब इसे घर ले जा रहे हैं। लाश की तरह बैलगाड़ी में लेटा पड़ा है। यह न बोलता-चालता है और न खाता-पीता है। यह अकेला पुत्र है।' अन्तिम वाक्य जीभ पर आते-आते उस भाई की आत्मा कराह उठी । दृश्य बड़ा करुण था; संत की सान्त्वनात्मक वाणी प्रस्फुटित हो उठी-'मामा, धीरज रखो, मैं अभी भगवान (मांगलिक) का नाम सुनाये देता हूँ । तेरे बेटे का कल्याण होगा।' ___ मांगलिक सूत्र श्रवण कराया और गरुदेव ने आदिवासी से गुप्त वात प्रकट करते हारा कहा-'अपने बेटे को घर ले जा, अब इसका कल्याण हुआ समझ ।' घर पहुँचे । देखा तो दम दिन के अन्दर लड़का बिल्कुल चंगा हो गया। उस दम्पत्ति के दिल में श्री गुरुदेव के प्रति असीम श्रद्धा जम गयी । जब कभी कोई उस बच्चे के विषय में जिज्ञासा करता तो उनके मुँह से यही निकलता 'यह तो मर गया था, मगर उस महात्मा ने इसे मंत्र सुनाकर अच्छा किया' । एक दिन आदिवासी दम्पत्ति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए कुछ भेंट लेकर महाराजश्री को तलाश करते हुए जब रतलाम पहुँचे तो रात्रि एक धर्मशाला में व्यतीत कर जहाँ पहली बार मिले थे, वहाँ जाकर गुरुदेव के आगमन की राह देखने लगे। जिनका न तो उन्हें नाम ही मालूम था और न ही निवास स्थान का कोई निश्चित पता ही। प्रतीक्षा करते अधिक देर नहीं हुई कि मनिश्री आते दिखायी दिये। उन्हें देख आदिवासी दम्पत्ति भक्ति-विहल हो उठे । चरण पकड़कर गुरुदेव को याद दिलाते हुए बोले-'आप भूल गये । आप ही ने तो मंत्र सुनाकर मेरे बच्चे को जीवनदान दिया है । आप मेरे लिए महात्मा नहीं साक्षात् परमात्मा हैं । इसलिए भेंट के रूप में कुछ टिमरू, चारोली और १० रुपये लेकर आया हूँ और खेती पकने पर मक्का भी लाऊँगा । आप यह सब स्वीकार करें।' - गुरुदेव उसकी कृतज्ञता पर प्रसन्न होकर बोले--'भला मैं तुम्हें कैसे भूल सकता हूँ, किन्तु मामा ! 'भेंट तो मैं नहीं लेता, मुझे सचमुच ही प्रसन्न रखना चाहते हो तो फिर वादा करो कि तुम दोनों जीवन-पर्यन्त शिकार नहीं करोगे, किसी त्यौहार पर पशु-बलि नहीं चढ़ाओगे, मांस-मदिरा का सेवन नहीं करोगे ; क्या ये चार बातें मंजूर हैं ?' 'चारों बात कर क्यों नहीं पायेंगे? हमें आपकी चारों बातें मंजर हैं। हम प्रतिज्ञा करते हैं कि आपको दिये गये वचन का पूर्ण पालन करेंगे।' इस तरह प्रतिज्ञा लेकर आदिवासी दम्पत्ति अपने गाँव की ओर चल दिये। → Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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