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________________ 'क्या चौथमलजी महाराज पधारे हैं ?' उनके उपदेशों का प्रभाव था कि हज़ारों राजकर्मचारियों ने रिश्वत लेने का त्याग किया। हज़ारों ने दारू-मांस छोड़ा । व्यापारियों ने मिलावट न करने की और पूरा माप-तौल रखने की प्रतिज्ञाएँ लीं। वेश्याओं ने अपने घृणित धन्धे छोड़े। कठोर-से-कठोर दिलवाले लोग भी उनके जादू-भरे वचनों से मोम की तरह पिघल जाते थे। - रिखबराज कर्णावट मेरे गाँव भोपालगढ़ की बात है। लगभग पचास वर्ष पहले जब मैं बच्चा था प्रसिद्ध वक्ता चौथमलजी महाराज पधारे । मुझे याद है सारा-का-सारा गाँव महाराजश्री के प्रवचन सुनने उमड़ पड़ता था। एक छोटे से गाँव में हजारों स्त्री-पुरुषों का अपना कामधन्धा छोड़कर एक जैन मुनि का प्रवचन सुनने आ जाना एक असाधारण घटना थी। सैकड़ों अजैन भाई-बहिन अपने को जैन व महाराज के शिष्य कहलाने में गौरव अनुभव करने लगे थे। महाराजश्री की प्रवचन-सभा में गाँव के जागीरदार से लेकर गाँव के हरिजन बन्धु तक उपस्थित रहते थे। कुरान की आयतें सुनकर मुसलमान भाई धर्म का मर्म समझने में प्रसन्नता अनुभव करते थे। समस्त ग्रामवासियों का इस तरह का भावात्मक एकीकरण हो जाने का कारण महाराजश्री के प्रति सबकी समान श्रद्धा थी। अनेक वर्षों तक उनका प्रभाव बना रहा। जब कभी ग्रामवासी जैन लोगों को मुनियों के स्वागतार्थ जाते हुए भारी संख्या में देखते तो बड़ी श्रद्धा-भावना से पूछते, “कांई चौथमलजी बापजी पधारिया ?" (क्या चौथमलजी महाराज पधारे हैं ? )। इस प्रकार का अमिट प्रभाव प्रसिद्ध वक्ताजी ने अपने प्रवचनों से सर्वत्र पैदा किया था। जोधपुर में महाराजश्री के दो चातुर्मास हुए। दूसरे चातुर्मास में मैं जोधपुर रहने लगा था। महाराजश्री के परिचय में भी आया। मुझ-जैसे साधारण व्यक्ति को भी महाराजश्री ने, जो स्नेह प्रदान किया वह मेरे लिए अविस्मरणीय है। जोधपुर शहर में भी ऐसा वातावरण था जैसे सारा शहर महाराजश्री का भक्त बन गया हो। विशाल व्याख्यान-स्थल पर भी लोगों को बैठने की जगह मुश्किल से मिल पाती। हज़ारों नरनारी, जिसमें सभी जातियों और सभी वर्गों के लोग होते थे, महाराजश्री का उपदेश सुनने बिला नागा आते थे। किसान, मजदूर और हरिजन भी इतना ही रस लेते थे जितना बुद्धिजीवी, सरकारी अहलकार एवं व्यापारी । महाराजश्री की प्रवचन-शैली इतनी आकर्षक एवं जनप्रिय थी कि उनके उपदेश का एक-एक शब्द बड़ी तन्मयता से चौ. ज. श. अंक १११ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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