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अब तुम यह सब प.प भी कर रहे हो और सुखी भी नहीं हो; हो क्या? देखो न तो शरीर पर अच्छे कपड़े हैं, न बढ़िया खाना-पीना मयस्सर है। फिर ऐसी पाप की कमाई के पीछे पड़े रहने में क्या सार है भैया ? सिर्फ पेट भरने के लिए क्यों पाप की गठरी बाँध रहे हो; बोलो बांध रहे हो या नहीं ?"
"महात्माजी! मैं आपके सामने जरा भी झूठ नहीं बोलूंगा! पर यह बात आपने सच ही कही है कि 'जैसी करनी, वैसी भरनी'। मैं सुखी जरा भी नहीं हूँ। आमदनी भी भरपूर है, वैसे, पर उसमें बरकत जरा नहीं है।" माधू ने अपनी बात झिझकते-झिझकते भी कह ही डाली।
महाराजश्री ने तभी अपना उपदेश आगे बरकरार रखते हुए कहा-"भाई, अब तुम समझ गये हो कि सुखी नहीं हो, इस धन्धे की कमाई में बरकत भी नहीं है फिर इस धन्धे को छोड़ क्यों नहीं देते? तुम्हें ध्यान है क्या कि सवाई माधोपुर के खटीकों ने ऐसा जघन्य पाप करना छोड़ दिया है। वे अब दूसरे धन्धों में लगे हैं और ठाठ से अपनी रोटी कमा-खा रहे हैं, उनके घरों में आनन्द-ही-आनन्द है।'
माधू खटीक को यह मालूम था, अतः वह बोला-"जी हाँ महात्माजी ! मुझे पता है कि वे दूसरे धन्धे में लग गये हैं। मैं भी इस धंधे से पिण्ड छुड़ाना चाहता हूँ पर ।"
"पर ! क्या ?"-- उन्होंने पूछा।
"बात यह है गुरु महाराज कि मैं कोई धनवान आदमी तो हूँ नहीं, गरीब हूँ, जैसे-तैसे पेट पाल रहा हूँ। मेरे पास बत्तीस बकरे हैं। यदि ये बिक जाएँ तो इनकी पूंजी से मैं कोई-न-कोई छोटा-बड़ा धन्धा शुरू कर दूंगा। आप मेरा यकीन कीजिये प्रभो! मैं कभी भी अपने प्रण से नहीं टलूंगा। पापी पेट भरने के लिए मैं किसी जीव को जरा भी नहीं मताऊँगा।" ___ महाराजश्री ने श्रावकों से कह कर उसके बकरों के दाम दिलवा दिये। माधू खटीक का जीवन उस दिन जो बदला तो उसकी सारी आस्थाएँ ही बदल गयीं। ज़िन्दगी की रौनक बदल गयी । वह महाराजश्री के चरणों में गिर कर अपने कुकृत्यों के लिए क्षमायाचना करता अश्रु-बिन्दुओं से उनके चरण कमल प्रक्षालित कर रहा था।
हिंसा पर अहिंसा की इस विजय का सारे शिष्य एवं श्रावक-समुदाय पर बड़ा व्यापक प्रभाव हुआ। कोई गुनगुना उठा तभी--
संगः संता किं न मंगल मातनोति (सन्तों की संगति क्या-क्या मंगल नहीं करती ?)
माधू घर आया तो उसका आचरण बदला हुआ था। उसने एक छोटी-सी दुकान लगाकर पाप की कमाई से छुटकारा पाकर घर में बरकत करने वाली खरे पसीने की कमाई लाने की राह तलाश ली थी। उस राह पर बढ़ गया वह। अब उसकी पत्नी उस पर नाराज नहीं रहती। बदलती आस्थाओं के साथ वह उसकी सच्ची जीवन-संगिनी बन गयी है; हर पल प्रतिक्षण हीर-पीर की भागीदार। .
तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७
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