SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एक सत्यकथा जैसी करनी, वैसी भरनी - श्रीमती गिरिजा 'सुधा' माधू खटीक आज फिर बुरी तरह से ठर्रा पीकर पत्नी पर हाथ उठा बैठा था। गालियों का प्रवाह बदस्तूर जारी था। उस बेचारी ने आज सिर्फ यही कहा था पड़ौसिन से कि “इन अनबोले जीवों की हाय हमारा सूख-चैन छीनकर ही मानेगी। कितना कमाते हैं ये पर पाप की लछमी में बरकत कहाँ ? तभी घर-खेंच मोची के मोची हैं हम।" पाप की लक्ष्मी की बात सुनते ही माधू के तन-बदन में आग लग गयी । वह चीख उठा घरवाली की पीठ पर दो चार मुक्के जमाकर - . . . 'बड़ी पुण्यात्मा बनी फिरती है। अरे खटीकण बकरों का ब्योपार नहीं करेंगे तो क्या गाजर-मूली बेचकर दिन काटेंग हम अपने । खटीक वंश का नाम डबोऊंगा क्या मैं माधो खटीक !" . . और आग्नेय नेत्रों से उसे घूरता मूंछों पर बल देता पीड़ा से कराहती छोड़ वह बाहर चल दिया। पत्नी उसकी सात पीढ़ियों को कोसती रही। थोड़ी देर बाद वह वापिस आया और बोला – “मैं बकरों को बेचने ले जा रहा है। अभी तो बलि चढ़ाने वाले ऊपर-तरी पड़ रहे हैं । अच्छे दाम मिलने की उम्मीद है। दो तो बेच ही आता हूँ आज ।” __ आत्म व्यथा से कराहती पत्नी ने कुछ भी नहीं कहा और वह उसी क्षण बाहर हो गया। बकरों को बाड़े से लेकर वह आगरा के एक कस्बे की ओर चल दिया। चलते-चलते दोपहर हो गयी तो उसने बकरों को एक छायादार जगह में बैठा दिया और खुद भी सुस्ताने की गरज से एक पेड़ के पास जा टिका। उधर आगरा की और से जैन सन्त चौथमलजी महाराज अपनी मण्डली के साथ कदम बढ़ा रहे थे। उन्होंने उसे सोते और पास में बकरों को चरते देखा तो उनके मन में अनायास ही दया उमड़ आयी। उन्होंने मन-ही-मन उस कसाई को आज सही रास्ता बतलाने का निर्णय किया और आप भी वहीं वृक्षों की छाया में विश्राम करने लगे। जैसा कि स्वाभाविक था, कुछ ही देर बाद माधू नींद से जागा और बकरे लेकर चलने लगा। तभी करुणामति चौथमलजी महाराज ने उससे पूछा-"क्यों भैया, इन्हें कहीं बेचने ले जा रहे हो क्या ?" ___ "बेचूंगा नहीं तो खाऊँगा क्या ?" वह एक दम रुखाई से बोला और चलने की तैयारी करने लगा। महाराजश्री ने अपनी मधुर वाणी में उसको समझाते हुए कहा"भाई, तू यह पाप कर्म आखिर किसलिए करता है ? जीवन-निर्वाह के तो छोटेबड़े अनेक साधन मिल सकते हैं। तुझे यह कहावत पता नहीं है क्या-“जैसी करणी वैसी भरणी ?" अरे, इस तरह मूक पशुओं की हिंसा करेगा तो उनकी हाय आखिर किस पर पड़ेगी ? दुसरों को दुःख देकर संसार में आज तक कौन सुखी हुआ है ? चौ. ज. श. अक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy