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लोग सुनते थे । उनके उपदेश का प्रभाव था कि हज़ारों राजकर्मचारियों ने रिश्वत लेने का त्याग किया । हज़ारों ने दारू-मांस छोड़ा । व्यापारियों ने मिलावट न करने की व पूरा माप-तौल रखने की प्रतिज्ञाएँ लीं । वेश्याओं ने अपने घृणित धन्धे छोड़े । कठोरसे-कठोर दिलवाले लोग भी उनके जादूभरे वचनों से मोम की तरह पिघल जाते थे ।
समाज-उत्थान के बड़े-बड़े काम भी उनके उपदेशों से हुए । अनेक विद्यालयों की स्थापना हुई । वात्सल्य - फण्ड स्थापित हुए । अनेक अगते कायम हुए। जोधपुर में सं. १९८४ से पर्युषण के दिनों में नौ दिनों तक सारे व्यापारियों ने अपना काम-काज बन्द रखकर धर्म-ध्यान के लिए मुक्त समय रखने का निर्णय लिया गया । यह निर्णय आज तक भी कायम है। सभी सम्प्रदायों के लोग इस निर्णय का पालन करते हैं ।
प्रसिद्ध वक्ता चौथमलजी महाराज के उपकारों की गणना करना कठिन है । मारवाड़, मेवाड़, मालवा में किये गये उनके उपकारों के उल्लेख से कई ग्रन्थ भरे पड़े हैं । मैंने तो अपने गाँव भोपालगढ़ तथा अब निवास स्थान जोधपुर के स्वल्प संस्मरणों का उल्लेख किया है । स्वाध्यायी के नाते उनके साहित्य को भी पढ़ा है । व्याख्यानों में सुनायी जानेवाली 'चौपियों' में उनके द्वारा रचित 'चौपियें' अक्सर सुनायी जाती है । उनके द्वारा रचित भजन, समाज-सुधार के गायन भी सबसे अधिक हैं। किसी भी क्षेत्र को उन्होंने अछूता नहीं छोड़ा । गहन आध्यात्मिक विषयों पर अपनी लेखनी चलायी तो ऐतिहासिक तथ्यों से ओतप्रोत कथानक गद्य-पद्य भी लिखे ।
वास्तव में जैन दिवाकरजी एक युग पुरुष थे । उन्होंने जाति-पांति के बन्धनों को गोड़ा, अस्पृश्यता का निवारण किया, व्यसन एवं बुराई में पड़े लोगों को निर्व्यसनी बनाया । शुद्ध समाज के निर्माण में उनका अद्भुत योगदान रहा । उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व कभी भुलाया नहीं जा सकता ।
( एक संपूर्ण संत पुरुष : पृष्ठ १०५ का शेष )
कथनी और करनी का ऐसा विलक्षण समायोजन अन्यत्र दुर्लभ है । उनकी वाणी में एक विशिष्ट मन्त्रमुग्धता थी । कैसा भी हताश - निराश व्यक्ति उनके निकट पहुँचता, प्रसन्न चित्त लौटता । 'दया पालो' सुनते ही कैसा भी उदास हृदय खिल उठता । उसे लगता जैसे कोई सूरज उग रहा है और उसका हृदय कमल खिल उठा है, सारी अँधियारी मिट रही है, और उजयाली उसका द्वार खटखटा रही है । कई बार मैं यह सोचता कि फलाँ आदमी आया, गुरुदेव से कोई बात न की, न पूछी और कितना प्रसन्न है ! ! ! जैसे उसकी प्रसन्नता के सारे बन्द द्वार अचानक ही खुल गये हैं । ऐसी विलक्षण शक्ति और व्यक्तित्व के धनी थे जैन दिवाकर महाराज । उस त्यागमूर्ति को मेरे शत-शत, सहस्रसहस्र प्रणाम !
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तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७
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