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पुत्र ने तुरन्त आज्ञा का पालन किया । प्रातःकाल ही किराये से बैलगाड़ी ली और उसमें लोहे का ड्रम रखा । जलाशय के किनारे पहुँचे । बाल्टियों से मछलियाँ ड्रम में भरी और वहाँ से दूर एक जल से भरे तालाब में उन्हें छोड़ दिया । जल में गिरते ही जैसे मछलियों का जीवन ही लौट आया । वे स्वच्छन्द विचरण करने लगीं । अमरचन्दभाई के मुख पर संतोष के भाव झलकने लगे । दिनभर यही क्रम चलता रहा। अमरचन्द और उसका पुत्र भूखे-प्यासे मछलियों की प्राणरक्षा करते रहे -- दूर जलाशय में उन्हें छोड़ते रहे । दूसरे दिन भी यही क्रम चलता रहा। सभी मछलियों की जीवन-रक्षा हो गयी। उनके इस कार्य की सराहना करते हुए लोग कहने लगे - 'कितना अन्तर हो गया है, अमरा में ? कहाँ तो यह आलस में पड़ा रहता था, नशे में धुत्त और कहाँ अब दया की मूर्ति ही बन गया है ।
लोगों की सराहना सुनकर अंमरचन्दभाई गद्गद हो गये । धर्म में उनकी प्रीति और बढ़ी । जीवन धर्ममय हो गया ।
एक बार कुछ संत गंगापुर आये । ज्यों ही अमरचन्दभाई को मालूम हुआ वे दौड़े आये और भाक्तपूर्वक उन्हें एक उचित स्थान पर ठहराया । गोचरी का समय हुआ । संत गोचरी हेतु चले तो उनके पीछे-पीछे अमरचन्द भी चल दिये । कई घर जाने पर भी संतों को भोजन नहीं मिला। कहीं अधूरा भोजन था, तो कहीं घर का दरवाजा ही बंद था । आहार की सुलभता न देख अमरचन्द का हृदय रो उठा । वे सोचने लगे- 'ये वही संत हैं, जिन्होंने भगवान् महावीर की वाणी सुनाकर हजारों, अधम- पापियों को धर्म की राह दिखायी है । उनके जीवन में सुख ही सुख भर दिये हैं । काल का कैसा दुष्प्रभाव कि आज इन्हें निराहार ही रहना पड़ रहा है।' उनकी आँखों से आँसू बहने लगे, रुलाई फूट पड़ी। साधु ने रोते देख पूछा - " क्यों रो रहे हो, भाई ?"
" अपने दुर्भाग्य पर रो रहा हूँ । जाति के कारण मैं आपको भोजन नहीं दे सकता । मेरे घर भोजन भी है, मेरे चौबिहार भी है ! और जो आपको भोजन दे सकते हैं उनके यहाँ से आपको मिला नहीं ।"
साधु ने सांत्वना दी- " भाई ! तुम्हारी भावना पवित्र है । यद्यपि हम लोग जाति-पांति और छुआछूत नहीं मानते, किन्तु लोक व्यवहार के कारण साधु-मर्यादा रखनी पड़ती है । फिर भी तुमने दान न देकर अपनी उत्कृष्ट भावना से दान से अधिक पुण्य लाभ लिया है । तुम्हारे ये आँसू गंगाजल से कहीं अधिक पवित्र हैं । "
अमरचन्दभाई को साधु के वचनों से सांत्वना मिली ।
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तीथकर : नव. दिस १९७७
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