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________________ अमरचन्दभाई जीवन-भर धर्म का पालन करते रहे। जैनधर्म पर उनकी श्रद्धा अट्ट और अडिग थी। सं. २००२ में उन्होंने ब्रह्मचर्य-व्रत ले लिया और बड़ी निष्ठा से उसका पालन किया। आयु के अंतिम समय में जब उनकी आत्मा इस नश्वर शरीर को छोड़ने लगी, तो वे समीप बैठे लोगों को बताने लगे – “देखो ! मझे जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज के दर्शन हो रहे हैं। वे मुझे मांगलिक दे रहे हैं। वे धर्म का दृढ़तापूर्वक पालन करने की प्रेरणा दे रहे हैं । • तुम लोग भी धर्म से विचलित मत हो जाना; निष्ठापूर्वक पालन करना।” । ___ यह कहते-कहते अमरचन्द के प्राण-पखेरू उड़ गये। -केवल मुनि गोशाला के द्वारा प्रभु की परीक्षा ___. “प्रभु लाट देश से विहार कर आर्य देश की ओर पधारे। पहले वे सिद्धार्थपुर के निकट होकर निकले। तब वहाँ से कूर्म गाँव की ओर वे बढ़े। मार्ग में गोशाला तिल के एक पौधे को देख कर खड़ा हो गया। और प्रभु की परीक्षा के उद्देश्य से वह उनसे पूछने लगा, “भगवन्, यह पौधा फलेगा, या नहीं?" और, इस पर जो ये सात फूल खिले हुए हैं, उनमें के जीव मर जाने पर, वे फिर कहाँ जाकर जन्म ग्रहण करेंगे?" इसके उत्तर में प्रभु ने कहा, “गोशाला यह तिल का पौधा फलेगा। और इसके ऊपर लग हुए, फूलों के जीव यहाँ से मर कर, और इसी पेड़ के ऊपर तिलों की फली में जाकर, दानों में, जन्म प्राप्त करेंगे।" गोशाला के के सन्देह और भ्रम-भरे चित्त को प्रभु के इस कथन पर विश्वास नहीं हुआ। विश्वास होता भी तो कैसे और क्यों? वह तो भगवान् के हृदय की परीक्षा लेने पर उतारू हो रहा था। उसने भगवान् के उस कथन को झूठा करने के लिए, भगवान को जरा अकेले-अकेले आगे बढ़ जाने दिया। पीछे से उसने उसी पौध को जड़मूल' से उखाड़कर, किसी एक निर्धारित स्थान पर फेंक दिया । और तब, कदम बढ़ाते-बढ़ाते वह प्रभु से आ मिला। प्रभु और गोशाला, अब कूर्म गाँव के निकट पहुँचे ही होंगे, कि उधर उस पौधे के पास से एक गाय दौड़ती हुई निकली। उसका पैर (खुर) उस पौध पर पड़ गया। भाग्य से वहाँ भी ज़मीन भी कुछ गीली थी । इन सब साधनों के मिल जाने पर आढ़े-टेढ़े किसी भी रूप में वह पौधा फिर जम गया। खुर के ज़ोर से ज़मीन में बैठने के कारण, वहाँ एक गड्ढा भी उस पौधे के लिए अच्छा हो गया था । आसपास का पानी सिमिट कर वहाँ कुछ आ गया । कुछ ही मुरझाया हुआ पौधा जल को, ज़मीन को और वायु तथा उपयुक्त गर्मी को पाकर, फिर पनप गया। समय पाकर उसके उन्हीं फूलों के जीव, तिलों की फली में तिल हुए।" (मुनिश्री चौथमल-रचित 'भगवान महावीर का आदर्श जीवन', पृष्ठ २७६ : १९३३) चौ. ज. श. अंक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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