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'निग्रन्थ-प्रवचन' 'लावणी-संग्रह' इत्यादि के
कुछ चुने हुए अंश
(यहाँ हम 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन' 'लावणी-संग्रह' तथा 'भगवान् नेमिनाथ और पुरुषोत्तम श्रीकृष्णचन्द्र' से कुछ चुने हुए अंश उद्धृत कर रहे हैं, जिनसे मुनिश्री चौथमलजी महाराज की साहित्य-मनीषा का सहज ही अनुमान हो जाएगा। मुनिश्री जहाँ एक ओर एक प्रखर आगम वेत्ता थे, वहीं दूसरी ओर लोकमन के पारखी कवि भी थे । 'निर्ग्रन्थ प्रवचन उनके गहन अध्ययन की एक उत्तम परिणति है, एवं लावणी तथा चरित-काव्यांस उनकी लोकसाहित्य-प्रतिभा का एक ठोस उदाहरण है । हमें विश्वास है हमारे सहृदय पाठकों को इन से मुनिवर्य की प्रतिभा की थाह मिलेगी और वे उनके संपूर्ण वाङमय के पारायण के लिए प्रेरित-उत्साहित होंगे । 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन' एक ऐसा ग्रन्थ-रत्न है जो जैनतत्त्व-दर्शन का एक संपूर्ण चित्रं हमारे सामने रखता है। इसमें १८ अध्याय हैं, जिनमें क्रमशः षट् द्रव्य, धर्म-स्वरूप, आत्मशुद्धि के उपाय, ज्ञान, सम्यरत्व, धर्म, ब्रह्मचर्य, साधुधर्म , प्रमाद-परिहार, भाषा-स्वरूप, लेश्या-स्वरूप, कषाय-स्वरूप, वैराग्य-सम्बोधन, मनोनिग्रह, आवश्यक कृत्य, नर्क-स्वर्ग और मोक्ष का निरूपण है।
-संपादक)
निग्रन्थ-प्रवचन
नो इंदियग्गेझ अमुत्तभावा, अमुत्तभावा वि अ होइ निच्चो । अज्झत्थहेउं निययस्स बंधो, संसारहेउ च व्यंति बंधं ॥ आत्मा इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता है, क्योंकि वह अमूर्त है । अमूर्त होने से वह नित्य भी है। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय आदि कारणों से आत्मा बन्धन में फंसा है और वह बन्धन ही संसार का कारण है । अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण या सुहाण य । अप्पा मित्तममितं च, दुप्पठ्यि सुपदिओ ॥ आत्मा ही सुख-दुःख का जनक है और आत्मा ही उसका विनाशक है। सदाचारी सन्मार्ग में लगा हुआ आत्मा अपना मित्र है और कुमार्ग पर लगा हुआ दुराचारी आत्मा ही अपना शत्रु है ।
तीर्थकर : नव. दिस. १९७७
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