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नाणस्सावरणिज्जं, दसणावरणं तहा । वेयणिज्जं तहा मोह, आउकम्मं तहेव य॥ नामकम्मं च गोयं च, अंतरायं तहेव य । एवमेयाई कम्माई, अद्वैव उ समासओ ॥ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय संक्षेप में ये ही आठ कर्म हैं।
जा जा वन्चइ रयणी, न सा पडिनिअतइ । अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जंति राइओ ॥ जो-जो गत्रि चली जाती है, वह-वह लौटकर नहीं आती। अधर्म करनेवाले की रात्रियाँ निष्फल जाती हैं।
धिई मई य संवेगे, पणिहि सुविहि संवरे । अत्तदोसोवसंहारे, सव्वाकामविरत्तया ॥ अदीन वृत्ति से रहना, संसार से विरक्त होकर रहना, कायादि के अशुभ योगों को रोकना, सदाचार का सेवन करना, पापों के कारणों को रोकना, अपनी आत्मा के दोषों का संहार करना, और सर्व कामनाओं से विरत रहना।
अह सव्वदव्वपरिणामभावविण्णत्तिकारणमणंतं । सासयमप्पडिवाई एगविहं केवलं नाणं ॥ केवलज्ञान समस्त द्रव्यों को, पर्यायों को और गुणों को जानने का कारण है, अनन्त है, शाश्वत है, अप्रतिपाती है, और एक ही प्रकार का है।
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नत्थि चरित्तं सम्मत्त विहूणं, सणे उभइअव्वं । सम्मत्तंचरित्ताई, जुगवं पुव्वं व सम्मत्तं ॥ सम्यग्दर्शन के अभाव में सम्यक चारित्र नहीं होता। सम्यग्दर्शन के होने पर चारित्र भजनीय है। सम्यक्त्व और चारित्र एक साथ होते हैं अथवा सम्यग्दर्शन पहले होता है।
चौ. ज. श. अंक
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