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________________ खामेमि सव्वे जीवा, सन्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मझं ण केणइ ॥ मैं सब जीवों को क्षमाता हूँ-क्षमायाचना करता हूँ, सब जीव मुझे क्षमा प्रदान करें। सर्वभूतों के साथ मेरी मैत्री है, मेरा किसी के साथ बैर नहीं है। भोगामिसदोसविसने, हियनिस्सेयस बुद्धिवोच्चत्थे । बाले या मन्दिये मढे, बज्झइ मच्छिया व खेलम्मि । भोग रूपी मांस में, जो आत्मा को दूषित करने के कारण दोष रूप है, आसक्त रहनेवाला तथा हितमय मोक्ष के प्राप्त करने की बुद्धि से विपरीत प्रवृत्ति करनेवाला, धर्मक्रिया में आलसी, मोह में फंसा हुआ, अज्ञानी जीव, कर्मों से ऐसे बंध जाते हैं जैसे मक्खी कफ में फंस जाती है। सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविडं न मरिजिउं । तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा बज्जयंति णं ॥ संसार के समस्त जीव जीने की इच्छा रखते हैं, मरने की इच्छा कोई नहीं करता; अतएव निर्ग्रन्थ साधु घोर जीववध का त्याग करते हैं । दुमपत्तए पंडुरए जहा, निवडइ राइगणाण अच्चए । एवं मणुआण जीवियं, समयं गोयम मा पमायए॥ गौतम ! जैसे रात्रि-दिन के समूह व्यतीत हो जाने पर पका हुआ पेड़ का पत्ता झड़ जाता है, इसी प्रकार मनुष्यों का जीवन है ; अतः एक क्षण मात्र का भी प्रमाद मत कर !! ११ तहेव काणं काणेति, पंडगं पंडगेत्ति वा । वाहियं वा वि रोगित्ति, तेणं चोरेत्ति नो वए । ६८ - तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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