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________________ त्याग का फल मिलता ही है। अमरचन्दभाई को भी सुफल मिलने लगा। मदिरा का व्यसन छूटने से धन की बचत हुई और शरीर का बल बढ़ा, मुख पर कान्ति लौट आयी। कुछ ही महीनों में उन्होंने अपने कर्ज का भारी बोझ उतार दिया । बचत लगातार हो ही रही थी। अब पास में धन जुड़ने लगा। घर का खानपान भी बदला और वेशभूषा भी बदल गयी। मलिन वस्त्रों का स्थान स्वच्छ वस्त्रों ने ले लिया । सुसंस्कार जाग्रत हो गये । अमरचन्दभाई के जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया। दो वर्ष बाद ही नया मकान भी बन गया। द्वार पर उन्होंने लिखवाया-'आइये भाईसाहब, जयजिनेन्द्र ! एक बार अमरचन्दभाई चातुर्मास में गुरु-दर्शन को गया तो वह इतना बदला हुआ था कि उसे पहचानना भी कठिन था। उसकी दशा इतनी बदल चुकी थी कि उसे कर्ज देने में आनाकानी करनेवाले अब उससे उधार माँगने लगे थे। सामायिक का पाठ सीखा और वह सामायिक करने लगा। समृद्धि का सर्वत्र आदर होता है। उसके जाति भाइयों ने उसकी ऐसी बदली स्थिति देखी तो समझा कि यह अवश्य ही गुरुदेव का प्रताप है। वे भी गुरुदेव के पास आये और कहने लगे-"हमें भी कोई प्रसाद दीजिये।" गुरुदेव ने उनकी भावना समझी और कहा-"हमारा प्रसाद तो नवकार मंत्र है । मांस-मदिरा-जुआ-जीवहिंसा आदि का त्याग है। दूसरों को सुख-साता दोगे तो खद भी सुखी रहोगे। दया पालो, नवकार मंत्र जपो - दोनों लोकों में सुख पाओगे।" उन लोगों ने भी गरुदेव का प्रसाद समझकर माँस-मदिरा और जीवहिंसा त्याग के नियम लिये। उनका भी जीवन बदल गया। बच्चों पर भी सुसंस्कार पड़ने लगे। उन्हें भी जीवदया में रस आने लगा। अब वे लोग आस-पास के गाँवों में गये और अपनी जाति में जीवदया का प्रचार करने लगे । जातिवालों ने उन्हें आदर-सहित पुनः जाति में सम्मिलित कर लिया। प्रातः, सायं, दोपहर वे नवकार मंत्र का जाप करते, भजन बोलते तथा अन्य देवी-देवताओं की अन्धी मान्यता भी वे न करते। राजस्थान में गर्मी की ऋतु बड़ी भयंकर होती है। वैसे ही वहाँ जल की कमी है, गर्मी में तो कुए और तालाब भी सूख जाते हैं। पानी के अभाव में मनुष्यों को तो कष्ट होता ही है; किन्तु मछलियों का तो जीवन ही जल है। जल के अभाव में वे तड़प-तरफ कर प्राण दे देती हैं। ऐसी ही एक ग्रीष्म थी। एक जलाशय का जल सूखने लगा था । मछलियाँ तड़पने लगी । जीवदया के व्रती अमरचन्द का हृदय काँप उठा । करुणार्द्र होकर उसने पुत्र से कहा-'बेटा इन्दर ! घर से दो सौ रुपए लेकर मेरे साथ चलो।' चौ. ज. श. अंक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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