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विहारकालेकमनीय माननं व्यलोकयन भव्यजना हतावयम् । इत्येवमुचुः पथिदूर भागते दिवाकरे चौथमले मुनीश्वरे ॥ भव्य जन थे देखते कमनीय मुख मुनिराज के। थे लोग पछताते परस्पर चौथमल पथ साज के ॥३२॥ समाधिकाले निहितात्म वृत्तिमान् विभाति वाचस्पतिवत् सभास्थितः। रमं वदन्ति हम जनाः परस्परं दिवाकरं चौथमलं मुनीश्वरम् ॥ गुरु सम सभा में शोभते थे योगयत निज वृत्त थे। यों बोलते जन थे परस्पर चौथमल के कीर्ति थे।।३३।। उदीयमाने पिवि भास्कर जनो गुरुन्पदार्थान् कुरुते समक्षम् । अणुस्वभावानपि तानवेदयद्दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ गुरु वस्तु को जन देखते रवि जब उदित हो गगन में। पर सूक्ष्म को भी दिखाते चौथमल निज कथन में ॥३४॥ महाजना वैश्य कुलोद्भवा जनाः स्वकर्म बन्धस्य क्षयाय सन्ततम् । ने मुः प्रभाते विधिवद् व्रतेस्थिता दिवाकरं चौथमलं मुनीश्वरम् ।। निज कर्म बन्ध क्षयार्थ सन्त वैश्य कुल भवभक्ति से।। थे दिवाकर को सतत करते नमन अनुरक्ति से ।।३५।। अप्राप्त वैराग्य जिनोक्त सत्पथ प्रयाण कामा बहवः सुशिक्षिताः। सुशिष्य लोका सततं सिथेविरे दिवाकरं चौथमलं मुनीश्वरं ॥ पाकर विराग जिनेन्द्र नय में गमन करना चाहते। थे सुशिक्षित शिष्यगण मुनि चौथमल को सेवते ।।३६।। निशीथिनी नाथ महस्सहोदरं विभ्राजते स्माम्बरमस्य पाण्डुरम् । जनाः रववाचो विषयं स्वकुर्वते दिवाफरं चौथमलं मुनीश्वरं ॥ थे निशाकार के सदृश अम्बर युगल शित शोभते । जन दिवाकर चौथमल मुनि के विषय में बोलते ।।३७।। न भेदले शोऽपि बभूव जातुचित, प्रशासति स्थानकवासो मण्डलम् । जना न तास्मिञ्जहति स्म सत्पथं दिवाकर चौथमले मुनीश्वरे। जब जैन मण्डल शासते थे भेद नहीं किचिंत कहीं। नहिं छोड़ते सन्मार्ग को वे चौथमल जब तक यहीं ।।३८।। वणिग्जना न्याय्य पथानुवर्तनाद प्रकामवित्ताजित लब्ध सत्क्रियाः। बभुः स्वधर्मेण गुरौ प्रशासके दिवाकरे चौथमले मुनीश्वरे ॥ थे वैश्यगण अतिशय धनी सत्कार पाते न्याय से। थे शोभित निज धर्म से श्री चौथमल जब ज्याय थे ।।३९।।
चौ. ज. श. अंक
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