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________________ न दुःखदारिद्रय भवायकश्चन प्रधर्षिता ज्ञानतमः समन्ततम् । उपास्य भक्तेह चरित्र शालिनम् दिवाकरं चौथमलं मुनीश्वरम् ॥ पाते न दुःख दरिद्रता चारित्र शाली जन सभी। अज्ञान नाशक चौथमल गुरु को नमन करते जमी।।४०।। चकार हिंसानत चौर्य प्रवञ्चना कामरतांश्चमानवान् । जिनेन्द्र सिद्धान्त पथानुसारिणो दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ चोरी अनृत हिंसा प्रवञ्चन काम चरत जो लोग थे। सब त्याग जिन पथ रत हुए जब चौथमल उपदेशते ।।४१।। जनावदन्तिस्म मृदुस्वभावो नदेहधारी सुरलोकनायकः। इहागतो धर्म प्रचार कारणादिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ नर देहधारी देवनायक जैन - धर्म पसार ने। आये यहाँ है लोग कहते चौथमल जग तारने ।।४२।। कुरुध्वमाज्ञां मनुजाः! कृपालोमहेन्द्र देव प्रमुखै तस्थ । जिनेश्वरस्येति टिदेश सर्वदा दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ हे मनुज देव महेन्द्र युत जिनदेव की आज्ञा करो। थे चौथमल उपदेशते भवदु:ख सागर तरो ।।४३।। अनित्य भूतस्य कलेवरस्य त्यजध्वमस्योपरमाय वासनाम् । समान स लोकानिति संदिदेश दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः। नश्वर कलेवर मुक्ति हित निज त्याग दो सब वासना । देते दिवाकर चौथमल नरलोक को यह देशना ।।४४।। स्वकर्म सन्तान विराम प्राप्तये प्रयासमासादयतिस्म सन्ततम् । शरीर संपोयण कर्म संत्यज दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ निज कर्म तन्तु विरामपाने यत्न मुनि करते सदा । थे देह पोषण कर्म छोड़े चौथमल मुनि सर्वदा ।।४५।। भजस्व धमत्यज लौकिकैषणां जहीहि तृष्णां कुरु साध सेवनम् । कथा प्रसङ्गेन जनानपादिशदिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः । कर धर्म त्यागो लोक सुख तृष्णा विरत साधु भजो। कहते सभा में चौथमल मुनि धर्महित सब सुख तजो।।४६।। जगत्पवित्रं कुरुते मनः कथा अतोकृत्र भक्ति कुरुतादनारतम् । जगत्प्रिये साध समाज सम्मते दिवाकरे चौथमले मुनीश्वरे ।। जगपूत करती मुनिकथा अतएव भक्ति सदा करो। जगत प्रिय अति साधु मानित चौथमल का पग धरो।।४७।। ९८ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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