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जिन प्रयातेन पथापरिव्रजन समाचारल्लोक हिताय किन्न। कृतज्ञतां तत्र तनुव सन्ततं दिवाकरे चौथमले मुनीश्वरे॥ जिन पथ गमन करता मुनीश्वर क्या नहीं जग हित किया। सन्तत वनो मुनि कृत्यवित श्री चौथमल जो धन दिया ।।४८।। जिनेन्द्र सिद्धान्त विवेचने रतः समस्त मेवागमयत् स्वजीवनम् । इयं ममानण्ययु पैत्वतो मति दिवाकरे चौथमले मुनीश्वरे ।। जिन नय विवेचन में मुनि जीवन समस्त बिता दिया। होने उऋण मुनि चौथमल से कृत्य मैंने यह किया ।।४९।। भवाटवी सन्तम सापहारिणं जगन्नुतम्मो क्ष पथ प्रचारिणम् । विशुद्ध भावेन नयामि मानसे दिवाकरं चौथमलं मुनीश्वरम् ॥ गहन जग के ध्वान्त हरते मोक्ष पन्थ प्रचारते। मानस विमल में चौथमल मुनि को सदा हैं मानते ।।५।। नमोऽस्तु तुभ्यं भुविपापहारिणे नमोऽस्तु तुभ्यं जनशर्मकारिणे । नमोऽस्तु तुभ्यं सुखशान्ति दायिने, नमोऽस्तु तुभ्यं तपसो विधायिने । तुमको नमन जगतापहारी सौख्यकारी नमन हो। मुमको सुख शान्तिदायी तपसो विधायी नमन ।।५१।। नमोऽस्तु तुभ्यं जिनधर्मधारिणे नमोऽस्तु तुभ्यं सकलाघनाशिने । नमोऽस्तु तुभ्यं सकलाद्धिदायिने नमोऽस्तु तुभ्यं सकलेष्टकारिणे ॥ तुमको नमन जिनधर्मधारी पापहारी नमन हो। तुमको नमन सब ऋद्धिदायी इष्टकारी नमन हो ॥५२।। कृपाकराक्षेण विलोक्य स्वं जनं तनोतुति जनतापहारिणीम् । स्व सप्तभङ्गीनय प्राप्त सन्मति दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ कृपा दृष्टि प्रदान कर निजलोक सब दुख हरे । निज सप्तभंगी नीति से मुनि चौथमल सन्मति करे ।।५३।। प्रसादमासाद्य मुनेरनारतं विधीयेत येन नुति निधानतः। सुखं स मुक्त्वेह महीतलेऽखिलं परत्रचावाप्स्यति सौख्य सम्पदम् ॥ पाकर कृपा मुनि की सतत जो रीतिपूर्वक प्रार्थना । करते सकल सुख भोग कर परलोक में सुख सम्पदा ।।१४।। मुनेः श्री चौथमल्लस्य पञ्च पञ्चाशदात्मिका। घासीलालेन रचिता स्तुतिर्लोक हितावहा ॥ घासीलाल मुनि रचित ये पढ़े विनय जो कोई। सकल सुखों को प्राप्त कर लोक हितावह होय ।।५५।। 00
चौ. ज. श. अंक
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