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महामनस्वी साधक संत मुनिश्री चौथमलजी
उपाध्याय कस्तूरचन्द महाराज संत-सत्संग सोने में सुगन्ध से कम नहीं है। इसकी महिमा अकथनीय कही गयी है। संत संयम की साक्षात् मूर्ति होते हैं। उनके साधना-साम्राज्य में पशु, पक्षी, पेड़, पौधे, मनुज सभी अभीत विचरण करते हैं। उनका सुखद संदेश मन, वचन और काया को प्रतिक्षण नयी रोशनी और नयी शक्ति प्रदान करता है। वस्तुतः संत-संस्कृति साधना, सेवा और समर्पण की संस्कृति है। इसी संस्कृति में आध्यात्मिकता का चरम और उत्कृष्ट विकास देखने को मिलता है; क्योंकि यही संस्कृति विश्व-संस्कृतियों के समन्वय का मूल आधार है। संत समन्वय, मैत्री और परस्पर बन्धुत्त के प्रतीक हैं। उनका परिवार अर्थात् सारी वसुधा; सारी धरती, सारा आकाश ।
__ महामालव के मूर्द्धन्य संत श्री चौथमलजी महाराज इसी संत-संस्कृति के एक ज्योतिवाही संत थे, जिन्होंने आत्मसाधना के साथ लोकोपकार को भी प्रेरित किया और दलितवर्ग की पीड़ा को समझा। उनके द्वारा अहिंसा, करुणा और वात्सल्य की जो तीर्थयात्राएँ हुईं उनकी कोई समानता आज उपलब्ध नहीं है। वे 'पराई पीर' जानते थे, व्यथा की वर्णमाला से परिचित थे, प्राणिमात्र की मंगलकामना उनका श्वासोच्छ्वास थी । बैठतेउठते, सोते-जागते उनके हृदय में एक ही बात रहती थी कि कोई दुःखी न हो, कोई कष्ट में न हो, सब निरापद हों, सब प्रसन्न हों, सब का कल्याण हो। वे असहायों के आश्रय थे; इसीलिए लोग उनके पास अपनी समस्याएँ लेकर आते थे, और एक रचनात्मक समाधान लेकर प्रसन्न चित्त लौटते थे। वे शान्ति और सुख की जीवन्त प्रतिमा थे।
कोटा का त्रिवेणी-संगम उनके जीवन का सब से उज्ज्वल प्रसंग है। वे चाहते थे सब एक हों, एक प्राण होकर सामाजिक और सांस्कृतिक अभ्युत्थान की दिशा में आगे बढ़ें। इसीलिए उन्होंने कभी कोई पद नहीं लिया और कभी कोई दल, संगठन या गुट नहीं बनाया। वे निर्गुट थे। सदाचार और परोपकार उनके जीवन के दो प्रमुख लक्ष्य थे। उनका सारा बल इन्हीं दो पर लगा था। कोटा में दिगम्बर और श्वेताम्बर साधुओं का जो शुभ संगम हआ वह अविस्मरणीय है, ऐतिहासिक है। 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन' उनकी इसी ऐक्य भावना का प्रतीक है। 'श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रवण संघ' की स्थापना उन्होंने एकता के उद्देश्य से ही की थी। वे चाहते थे व्यक्ति, समाज, देश, विश्व सब सुखी हों और सब एकदूसरे की सहायता द्वारा विकास करें।
वे जीवन के सच्चे कलाकार थे। उन्होंने नगर-नगर और गाँव-गाँव में विचरण किया और वहाँ की विकृतियों को समाहित किया। अहिंसा की संजीवनी देकर मृतप्राय: मानवता को उन्होंने पुनरुज्जीवित किया। वे जैन-जनेतर सब के बन्धु थे, अकारण; भूले-भटकों के लिए सूर्य थे, अकारण; उनकी प्रवचन-संपदा हम सब की बहुमूल्य विरासत है; क्या हम ऐसे महामनीषी को कभी मूल पायेंगे ?
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तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७
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