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४. धर्म के चार प्रकारों में चौथा धर्म 'भाव' है, जिसका गोरव विश्वविदित है। इसके बगैर शेष तीनों धर्म निष्फल हैं। तीर्थंकर नाम की निष्पत्ति 'भाव' से ही होती है और आत्मशोधन का मूलमन्त्र भी 'भाव' ही है ; 'भाव' से ही अनन्त आत्माएँ मुक्त हुई हैं। 'भाव' की यह डगर अजर-अमर है। समुन्नत लोकजीवन का आधार भी यही 'भाव' है। उदाहरणार्थ गोदामों में माल भरा है । ब्याज और किराये के बोझ से व्यापारी का मन उदास है । वह प्रतिपल भाव की प्रतीक्षा में दूरभाष की ओर टकटकी लगाये बैठा है। घंटी आते ही चोंगा उठा लेता है । अनुकूल समाचार सुनकर चेहरा खिल उठता है। केवल हाथ-पैर ही नहीं उसका सारा वदन उत्साहित और सस्फूर्त हो उठता है । यह है बाजार-भाव की करामात । यह हुई लौकिक भाव की बात किन्तु औपशमिकादि लोकोत्तर भाव तो आत्मा को ज्ञानादि निज गुणों से संपन्न, समृद्ध करनेवाले हैं। चतुर्थ भावधर्म की स्मृति अनुक्षण बनी रहे इसीलिए 'चोथमल' नाम आपको मिला और तदनुसार आपने भाववृद्धि की अमर उपलब्धि द्वारा अपना नाम चरितार्थ किया। .
चौदह गुणस्थानों में चौथा गुणस्थान सम्यक्त्व है। आत्मा को बोधि या सम्यक्त्व की उपलब्धि इसी गुणस्थान में होती है। जैसे बीज की अनुपस्थिति में वृक्ष आविर्भूत नहीं होता, वैसे ही बोधि के बिना शिव-तरु का प्रादुर्भाव भी संभव नहीं है। सम्यक्त्व के बिना ज्ञान ज्ञान नहीं है, चारित्र चारित्र नहीं है। इस चौथे गणस्थान को धारण कर वे सामान्य जन से सम्यक्त्वी चौथमल बने और उत्तरोत्तर आरोहण करते गये। उनके पदचिह्न अमर हैं, उनका कृतित्व अमर है, व्यक्तित्व अमर है, और उन्होंने ज्ञान तथा समाज-सेवा की जिस परम्परा का निर्माण किया है, वह अमर है। . मुझे स्मरण है कि एक दिन किसी जैनेतर ग्रामवासी ने मुझसे पूछा था क्या आप चौथमलजी महाराज के चेले हैं ? उसके इस प्रश्न से मैं श्रद्धाभिभूत हो उठा। मैंने कहा'हाँ'। बातचीत से पता चला कि उसने अपने गाँव में उनका कोई प्रवचन सुना था, जिसका प्रभाव अभी भी उसके मन पर ज्यों-का-त्यों था। ऐसे सवाल राजस्थान के कई ग्रामवासियों ने मुझसे किये हैं अतः यह असंदिग्ध है कि वे कभी न अस्त होनेवाले सूरज थे, जिसकी धूप और रोशनी आज भी हमें ओजवान और आलोकित बनाये हुए है। किंवदन्तियों-साजन-जनव्यापी उनका व्यक्तित्व अविस्मरणीय है।
सम्यग्दृष्टि/मिथ्यादृष्टि ... 'समभावी और सम्यग्दृष्टि जीव किसी धर्म का निषेध नहीं करता; वह तो किसी को मुख्य और किसी को गौण रूप में देखता है। वह किसी बुराई को अच्छा नहीं समझता, बल्कि वस्तु में रही हुई अच्छाइयों पर दृष्टि रखता है और बुराइयों की उपेक्षा करता है। मिथ्यादृष्टि इससे विपरीत होता है। वह अच्छाई को बुराई समझता है और उस बुराई को ही प्रधानता देता है।।
-मुनि चौथमल
तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७
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