________________
कर दिया । सर्वाधिक योग्य होते हुए भी उन्होंने आचार्य-जैसे पद को स्वीकार न कर अपने उदार और विशाल हृदय का जो परिचय दिया वह एकता-प्रयत्नों के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित किया जाएगा । उन्होंने स्थानकवासी परम्परा की दृष्टि से ही नहीं अपितु स्थानकवासी मूर्तिपूजक और दिगम्बर समाज की एकता के लिए भी
(बायें से) कोटा में आचार्य सूर्यसागरजी म., जैन दिवाकर चौथमलजी म.,
आचार्य आनन्दसागरजी म., उपाध्याय प्यारचन्दजी म., मुनिश्री अशोक म. भरसक प्रयास किये। कोटा में तीनों मंप्रदायों के सन्तों ने एक मंच पर लम्बे समय तक प्रवचन देकर एकता की जो अविचल पहल की उसे कौन विचारक विस्मृत कर सकता है ? वस्तुत: वे जैन एकता के प्रबल पक्षधर थे । जैन समाज में एकता की जो स्वर-लहरियाँ सुनायी दे रही हैं, उसके मूल प्रेरक-प्रवर्तक वे ही थे । ___मैंने अत्यन्त नम्रता से दिवाकरजी महाराज से पूछा-'आप वर्षों से साधु-साध्वियों का नेतृत्व कर रहे हैं, अपने अनुभव के आधार पर यह बताने का अनुग्रह करें कि एक कुशल शास्ता के लिए मुख्यतः किन सद्गुणों की आवश्यकता होती है ?'
उस मनीषी ने उत्तर दिया-'देवेन्द्र, कुशल शासक वह है, जिसमें धीरज हो, सहनशीलता हो, निर्णय की क्षमता हो, विनम्रता और गांभीर्य हो, हर व्यक्ति के अन्तर्मन को समझने-परखने की योग्यता हो, और साथ ही बात पचाने की शक्ति हो । अनुशास्ता बनना सरल है, किन्तु अनुशासक में कुशलता का निखार आना कठिन है । यह काँटों का ताज है । अनुशास्ता को समय पर कठोर भी होना होता है, कोमल भी; दृढ़ भी, लचीला भी ।' ___ मैंने पुनः प्रश्न किया – 'भगवन्, आप कोमलता और कठोरता में से विशेष किसे पसन्द करते हैं ?'
२४
तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org