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इस पर सहज ही वे बोले - 'अकेली कोमलता अनुशासक के लिए हानिप्रद है, कठोरता भी एकार्कः यदि वह है तो भयावह है । शासक को तो कुम्हार की तरह होना चाहिये । तुमने कुम्हार देखा है न ? वह ऊपर से प्रहार करता है, किन्तु भीतर से अपने सुकोमल हाथ का दुलार देता है । चाणक्य-नीति अनुशासक को कठोर होने के लिए प्रेरित करती है, उसका कथन है कि अनुशासक को प्रतिक्षण कठोर रहना चाहिये । सूरज कठोर है, अतः ग्रहण उसे विशेष नहीं डसते; चाँद शीतल है, राह उसे बार-बार ग्रसता है; किन्तु धर्म कहता है कि अपने लिए कठोर बनो बज्र से अधिक'; किन्तु अन्यों के लिए मक्खन-जैसे मृदु बनो । अनुशास्ता मर्यादा-पालन कराने के लिए कठोर भी होता है, और कोमल-मृदु भी; किन्तु दोनों ही स्थितियों में उसमें परमार्थ की भावना होती है, स्वार्थ की नहीं । हित की बुद्धि से किया गया अनुशासन ही लाभप्रद होता है।' ___मैंने अन्त में दिवाकरजी महाराज से निवेदन किया कि वे मुझे कुछ ऐसी शिक्षाएँ दें, जिनसे जीवन में निखार आ सके ।
मेरे सिर पर अपना वरदानी हाथ रखते, वाणी में मिसरी घोलते वे बोले'देवेन्द्र, तुम अभी बालक हो, हम बूढ़े हो चले हैं । तुम्हें धर्मध्वज फहराने के लिए आगे आना है। याद रखो, विकास का मूल मन्त्र है विनय । विनय का स्थान विद्या से कहीं ऊँचा है । विनय साधना की आत्मा है, वह जैन शासन का मूल है। तुम स्वयं विनम्र बनो, झुकना सीखो । जो स्वयं झुकता है, झुकना जानता है, वही दूसरों को झुका सकता है । जो खुद नमता है, वहीं दूसरों को नमा सकता है। दूसरी बात - हमेशा मधुर बोलो, बिना प्रयोजन मत बोलो; वाणी पर सदा संयम रखो । तीसरी बात - समय का सदा सदुपयोग करो । जो क्षण बीत जाते हैं, वे लौटकर नहीं आते । समय का दुरुपयोग करनेवाला जीवन-भर पछताता है ।' तुम्हारी उम्र पढ़ने की है, खूब पढ़ो; जितना अधिक पढ़ोगे, बुद्धि का उतना ही अधिक विकास होगा । चौथी बात - आचारनिष्ठ बनो। आचार बिना, विचारों में वैराग्य नहीं आ सकता । जिस दीपक में जितना अधिक तेल होगा, वह उतना ही अधिक प्रकाश करेगा । आचार के तेज से ही विचारों में विमलता आती है ।
दिवाकरजी महाराज की अमूल्य शिक्षाएँ सुनकर मैं चरणों में नत हो गया; और आज जब भी उनकी उक्त शिक्षाएँ याद आ जाती हैं, हृदय श्रद्धा से छलक उठता है, विनय में झुक जाता है। ___'अपढ़ लोग या तो प्रतिज्ञा लेते नहीं, ले लेते हैं तो उसका दृढ़ता से पालन करते हैं।
'आग भी जलाती है और क्रोध भी जलाता है, किन्तु दोनों से उत्पन्न होने वाली जलन में महान् अन्तर है। आग ऊपर-ऊपर से चमड़ी आदि को जलाती है, मगर क्रोध अन्तरतर को समाप्त करता और जलाता है। क्रोध की अग्नि बड़ी ज़बर्दस्त होती है।
-मुनि चौथमल
चौ. ज. श. अंक
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