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जैन आगम में श्रमण के लिए आदेश है--सज्झाय जोगे पयतो भवेज्जा (स्वाध्याय योग में सदा यत्नवान बने रहो) । जीवन का एक क्षण भी निरर्थक मत जाने दो। मैंने इस आदेश की छाया में देखा कि दिवाकरजी महाराज मध्याह्न में क़लम लिये लिख रहे हैं। सहज ही पूछ बैठा--'आप विश्राम क्यों नहीं करते?' मुस्कराते हुए बोले-'साधक के लिए आराम कैसा? हम श्रमण हैं, श्रम हमारा कर्तव्य है। विहार में स्थान की अनुकूलता के अभाव में गंभीर विषयों पर न लिख कर कविता लिखता हूँ । कविता करते समय मन की सारी थकान मिट जाती है।'
____ मैंने फिर पूछा-'आज तक आपने कितनी कविताएं लिखीं हैं ?' खिले हुए मुखमण्डल के साथ बोले --'मेरी रुचि बचपन से ही कविता में रही है। कितना लिखा इसका हिसाब नहीं रखा, पर हजारों पद्य लिखे हैं, और बीसियों चरित्र भी कविता में ही लिखे हैं।'
____ मैंने उनके कविता-साहित्य को पढ़ा है । वहाँ कोई शब्दजाल नहीं है, भावों की गम्भीरता है; पाण्डित्य-प्रदर्शन नहीं है, हृदय की सरसता है। उसमें सर्वत्र जन-जन के जीवन के लिए मंगलमयी भावनाएं थिरक रही हैं।
वार्तालाप में मैंने उनसे पूछा-'माना, अन्य जैन संप्रदायों के साथ हमारा सैद्धान्तिक मतभेद है, किन्तु स्थानकवासी समाज में ही आज नाना संप्रदाय हैं जिनमें सैद्धान्तिक मतभेद नहीं है, चरित्र की तरतमता का भेद है । यह भेद अस्वाभाविक नहीं है, क्योंकि जहाँ किसी एक संप्रदाय में बीस साधु हैं वहाँ चारित्र को लेकर वैयक्तिक साधना-क्षमता के अनुसार तरतमता का अन्तर होगा ही। जैसे हाथ की पाँचों अंगुलियाँ समान नहीं हैं, वैसे ही सभी साधु समान नहीं हो सकते। भगवान् महावीर के युग में भी समानता नहीं थी; यदि समानता होती तो सम्राट श्रेणिक के प्रश्न के उत्तर में भगवान् महावीर धन्ना को सर्वश्रेष्ठ क्यों बनाते ? अतः इस सामान्य प्रश्न को लेकर हम इतने अधिक उलझ-पुलझ गये हैं कि जिसे देखकर मन अनायास ही खिन्न हो उठता है, क्या इस सम्बन्ध में आपने कभी कोई विचार किया है ?'
तनिक गंभीर हुए वे बोले –'छोटे-छोटे मुनियों के अन्तर्मन को यह प्रश्न झकझोर रहा है, यह जागृति का चिह्न है। मैं वर्षों से स्थानकवासी समाज की एकता के लिए प्रयास कर रहा हूँ किन्तु मुझे परिताप है कि मेरा संप्रदाय जो आज दो भागों में विभाजित है, कोई आदर्श उपस्थित नहीं कर पाया है। मेरी हादिक इच्छा है कि स्थानकवासी समाज एक हो, उसमें एकता स्थापित हो। यदि दीर्घकाल तक यही स्थिति रही तो वह शोचनीय बन जाएगी।' __मुझे यह लिखते हुए अपार हर्ष होता है कि दिवाकरजी महाराज ने स्थानकवासी समाज की एकता के लिए संगठन की निर्मल भावना से अपने संप्रदाय को विसर्जित
चौ. ज. श. अंक
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