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काल में अधिक मास नहीं माना जाता; किन्तु वर्षों से लौकिक मान्यता के कारण जैन समाज ने भी चातुर्मास काल में वृद्धि मान ली तथा यह विवाद उत्पन्न हो गया। मैं शास्त्रों का अध्येता नहीं, किन्तु एक साधारण बुद्धि का व्यक्ति होने के नाते यह जानता हूँ कि पृथ्वी या सूर्य (जो भी गति करता हो) वर्ष भर में चक्कर लगाता है। वर्ष के काल को मानव ने सुविधा के लिए १२ भाग करके नामकरण कर दिये हैं। केवल यही नहीं उन १२ भागों के नाम भी निश्चित कर दिये वरन् १-१ भाग के ३०-३० भाग करके भी उनके नाम निश्चित कर दिये। यह सारी प्रक्रिया मानव-कृत है। यदि मास तथा दिन के नाम शाश्वत या किसी प्राकृतिक शक्ति द्वारा निश्चित किये होते तो भाषा-भेद के पश्चात् भी पूरे विश्व में एक से नाम ही होते । मानव द्वारा निश्चित इन नामों के पीछे इतना विवाद अल्पबुद्धि में नहीं आता नाम निश्चित कर्ता मानव को हम ज्योतिषी कह सकते हैं। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है जैन ज्योतिष के हिसाब से श्रावण या भाद्रपद अधिक मास नहीं होता। शायद इस मान्यता के पीछे प्राचीन जैन ज्योतिष के विद्वानों अथवा आचार्यों को यह भय होगा कि आगामी काल में मनुष्य अपनी मान्यता के प्रति अधिक आग्रह रखेंगे और यह आध्यात्मिक पर्व भी विवाद का कारण बन जाएगा। इस कारण उन्होंने यह व्यवस्था की कि चातुर्मास काल में श्रावण या भाद्रपद की वृद्धि नहीं होती है। ___ जैसा कि ऊपर लिखा गया है संवत्सरी (श्वे. परम्परा) के संबन्ध में ही चतुर्थी या पंचमी का विवाद प्रति वर्ष का प्रश्न है अभी बम्बई से प्रकाशित गुजराती 'जैन प्रकाश के पर्यषणांक के पष्ठ ५४२ पर एक लेख प्रकाशित हआ है जिसमें अहमदाबाद (गजरात) में आयोजित भारतीय पंचांग परिषद् द्वारा निश्चित ४० राष्ट्रीय त्यौहारों का विस्तृत समाचार पत्रों में प्रकाशित होना बताया गया है। उस समाचार में यह भी निर्देश था कि संवत्सरी भाद्र शुक्ल चतुर्थी को मान्यता दी गयी है। इस समाचार पर से भारतीय पंचांग परिषद् से पत्र-व्यवहार करने पर इसके अध्यक्ष का २१ जुलाई ७७ का पत्र गुजराती 'जैन प्रकाश' के संपादक को प्राप्त हुआ है उस उत्तर में उन्होंने स्पष्ट बताया है कि चतुर्थी तथा पंचमी दोनों का उल्लेख हमने कर दिया है, किन्तु यदि प्राचीन शास्त्रीय उद्धरण हमें भेजे जाएँ तो हम ऐसा प्रयत्न करेंगे कि जिससे निर्णय सर्वग्राही बन सके । उक्त समाचार में निहित प्रश्न को गंभीरता से लिया जाना चाहिये तथा जैन समाज को गहराई से सोच-विचार कर एक तिथि निश्चित करना चाहिये ताकि भारतीय समाज तथा राष्ट्र के सन्मुख हम इस आध्यात्मिक पर्व के संबन्ध में एक्य प्रकट कर सकें। एक आदर्श, एक धर्माचार्य, एक सिद्धान्त के बाद भी हम अपने आध्यात्मिक पर्व के संबन्ध में अनाग्रही न बन सके यह हमारे लिए अत्यन्त हास्यापद स्थिति है। इस या ऐसे ही संदर्भो में जब तक हम एक नहीं होंगे तब तक सरकार हमें नहीं मानेगी और इसी कारण इस महान आध्यात्मिक पर्व पर भी हम राष्ट्रीय अवकाश स्वीत नहीं करा सकेंगे। मुझे स्मरण है कि संवत्सरी पर्व पर अवकाश न होने के कारण एक स्थान के श्वेताम्बर जैन समाज के एक सदस्य को एक फौजदारी मुकदमे के निर्णय के लिए उपस्थित होना पड़ा था तथा दुर्भाग्य से उसे कैद की सजा हुई थी परिणाम यह हुआ कि उनको सांवत्सर प्रतिकमण (यदि किया हो) जेल के भीतर ही करना पड़ा होगा । इन सारी विषम परिस्थितियों में कभीकभी हृदय में यह विचार आता है कि क्या अंग्रेजी ज्योतिष के हिसाब से निश्चित तारीख तथा महीने हम नहीं अपना सकते ताकि अधिक मास या तिथि वृद्धि-क्षय का प्रश्न ही समाप्त हो जाए। यदि हमारा नेतृत्व एक मत नहीं हुआ तो वह दिन दूर नहीं जब युवा-वर्ग उपयुक्त विचार को अपना समर्थन देने लगे।
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तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७
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