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संवत्सरी : एक विचारणीय पक्ष क्या यह संभव नहीं था कि पूरे जैन समाज को एक प्रतिनिधि सभा बुलाकर पर्युषण के संबन्ध में एक सर्वसम्मत निर्णय लिया जाता, जो हमारी सामाजिक एकता की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम होता ?
- सौभाग्यमल जैन
पत
पूर जैन समाज में पर्युषण पर्व का महत्त्व स्वीकृत है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में 'पर्युषण' तथा दिगम्बर सम्प्रदाय में 'दशलक्षण' पर्व के नाम से विख्यात यह एक आध्यात्मिक पर्व है । इसके अन्तिम दिन क्षमायाचना की जाती है। अविस्मरणीय काल से मानव एक-दूसरे के प्रति अपनी की हुई भूल, अविनय, अपराध के लिए क्षमा की याचना करता तथा दूसरे को क्षमादान करता है। इस अत्यन्त कोमल भावना से परिपूर्ण आध्यात्मिक पर्व को मनुष्य जितने शद्ध हृदय से पालन करे, उतना ही उसका कल्याण होगा यह संदेह से परे है, किन्तु वर्षों से इस पर्व ने भी एक रूढि और औपचारिकता का स्थान ले लिया है। यही कारण है कि नाम पर भी मतभेद कायम है। जिस वर्ष अधिक मास होता है उस वर्ष पर्युषण कब मनाया जाए? यह प्रश्न चिन्तनीय हो जाता है। वैसे
म्बर परम्परा में ही संवत्सरी को कुछ समदाय चौथ को तथा कुछ लोग पंचमी को मनाते ही हैं। चतुर्थी तथा पंचमी का अन्तर तो प्रति वर्ष का ही है। यदि वास्तव में देखा जाए तो पर्युषण पूरे वर्ष मनाया जाए तो कोई हानि नहीं है। इसमें भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती है ? किन्तु मनुष्य इतना आध्यात्मिक तो है नहीं कि पर्युषण पर्वजसा व्यवहार पूरे वर्ष तक रख सके ।
सामाजिक एकता के लिए यह आवश्यक है कि पूरा जैन समाज एक ही समय पर्युषण मनाये। यदि यह संभव न हो तो कम-से-कम यह तो किया ही जा सकता है कि श्वेताम्बर तथा दिगम्बर परम्परा अलग-अलग दिनों में मना लें, किन्तु इस वर्ष तो यह देखा गया कि श्वे. स्थानवासी परम्परा में एकाध अपवाद को छोड़कर पूरे समाज ने एक समय ही पर्युषण मनाया। किन्तु श्वे. देरावासी समाज में किसी ने द्वितीय श्रावण में किसी ने भाद्रपद में पर्युषण मनाया। दिगम्बर परम्परा ने भी पर्युषण पर्व भाद्रपद में ही मनाया। यह सुखद विषय है कि स्थानकवासी समाज में द्वितीय श्रावण या भाद्रपद संबन्धी पुरातन मतभेद के बाद भी एकता के लिए अधिकतर साधु-मुनिराज ने द्वितीय श्रावण में ही पर्युषण मनाने का तय कर लिया। क्या यह संभव नहीं था कि पूरे जैन समाज की एक प्रतिनिधि सभा बुलाकर पर्युषण के संबन्ध में एक निर्णय लिया जाता, जो सामाजिक एकता की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदन होता, किन्तु अब तो पर्युषण मना लिये गये हैं अतः अब यह प्रश्न अतीत का हो गया है ।
__ अगस्त १९७७ की अगर भारती' में कविरल अमर मुनिश्री का एक अत्यन्त विश्लेषणात्मक लेख प्रकाशित हुआ जिसका शार्षक है 'पर्युषण कब ? एक चिन्तन'। उक्त लेख में श्रद्धेय मुनिजी ने शास्त्रीय उद्धरण तथा प्राचीन परिपाटी का विश्लेषण करके यह प्रतिपादित किया है कि चातुर्मास (वर्षावास) की परम्परा भगवान् महावीर ने ही प्रारंभ की थी। उनके पूर्व कोई परम्परा नहीं थी । महाविदेह क्षेत्र में आज भी नहीं है। तात्पर्य यह है कि हमारी परम्परा में देशकालानुसार परिवर्तन होता रहा है। श्रद्धेय मुनिश्री के मतानुसार जैन मान्यता में अधिक मास का प्रश्न असंगत है । वर्षावास के
चौ. ज. श. अंक
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