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समय द्वार है सत्य का : भानीराम सिरिवाल चरिउ (मल : नरसेनदेव) : 'अग्निमुख', सितम्बर, पृ. १३ । संपा.-अनु.-डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, (समीक्षा),
समयसार-आत्मा के अशरीरीभाव माचे, पृ.३१ की बीजानभूति : ब्र. हरिलाल, सितम्बर, सीमा : खुशियों की माँ (बोधकथा) : पृ.२८
नेमीचन्द पटोरिया, अप्रैल, आवरण-पृ.३ समयसार-आत्मानुसंधान : चारुकीर्ति सुनेंगे ही सुनेंगे, कुछ करेंगे भी : माणकभट्टारक स्वामी, सितम्बर, पृ.२९ । चन्द कटारिया, फरवरी, पृ.१२
समयसार-‘णाणं णरस्स णारो' : डा. सूरज निकला हो और आँखें न हों तो देवेन्द्रकुमार शास्त्री, सितम्बर, पृ.३० (?) : भगवान् महावीर ने कहा था.
'समयसार-नाटक' में रस-विवेचन : जनवरी, आवरण-पृ.४ डा. प्रकाशचन्द जैन, सितम्बर, पृ. २४ स्याद्वाद : बिन्दु-बिन्दु सिन्धु : मुनि
समयसार : प्राणों का प्राण, चक्षओं का बुद्धमल्ल, मई, पृ.१२ चक्षु; सितम्बर, पृ.३ । समयसार : विषकुम्भ और अमृत
वर्ष ५ (मई १९७५ से अप्रैल १९७६) कुम्भ : जमनालाल जैन, सितम्बर, पृ.३१ अतिमुक्त (पुराण कथा-संग्रह):
समयसार : संदर्भ-ग्रंथ; सितम्बर, गणेश ललवानी, (समीक्षा), सितम्बर, पृ. १८
पृ. ३८ 'सम्यक्'-खो गया है : माणकचन्द ____ अतिथि देवोभव (बोधकथा) : नेमीचन्द कटारिया, सितम्बर, पृ.१९
पटोरिया, सितम्बर, आवरण-पृ. ३ सम्यग्दृष्टा : 'स्व' का आसन : डा. ___ अतीत में कुछ क्षण (जन संख्या १९११ जयकिशनप्रसाद खण्डेलवाल, सितम्बर, के अनुसार जैन स्त्रियों की तुलनात्मक पृ.३१
स्थिति), अगस्त, पृ. ४; (पर्युषण और सल्लेखना : एक अनुचिन्तन : मुनि बादशाह अकबर का फरमान, सितम्बर, बुद्धमल्ल, जुलाई, पृ.११
सह-अस्तित्व का समर्थन, स्यादवाद, अनुभव : भीतर के, बाहर के :अयोध्यासात्र (टिप्पणियाँ) : लक्ष्मीचन्द्र जैन प्रसाद गोपलीय, अगस्त, पृ. १३ 'सरोज', अगस्त, पृ. २५
____ अनेकान्त के बिना अहिंसा कितनी पंग सह-अस्तित्व : सब, सबके लिए : माणकचन्द कटारिया, सितम्बर, पृ. ७ प्रकाशचन्द्र पाँड्या, अगस्त, पृ. १३
अनेकान्त : आधुनिक संदर्भ में : डॉ. सामाजिक व्याकरण : संपादकीय, निजामुद्दीन, अक्टूबर-नवम्बर, पृ. ३ ।। अगस्त, पृ.५
___ अपरिग्रह : आधुनिक संदर्भ में : डा. 'सार-सार को गहि रहे' : श्रीमती प्रेमसुमन जैन, अगस्त, पृ. १७ (डा.) कुन्तल' गोयल, अक्टूबर, पृ.२३ अपरिग्रह : मूर्ति का : माणकचन्द कटा
साँथिया : एक अनुचिन्तन (टिप्पणी), रिया, अगस्त, पृ. ७ हीरालाल जैन, जनवरी, पृ.२७
'अभिधान-राजेन्द्र' कोश में आगत कुछ ___ सृजनपरक अहिंसा : संपादकीय, मई, शब्दों की निरुक्ति : डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री,
जून-जुलाई, पृ. १४७
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तीर्थकर : नव दिस. १९७७
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