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________________ ८३. किसी में बुराई है तो बुराई की ओर मत देखो; बुराई की ओर देखोगेो वह तुम्हारे अन्दर प्रवेश कर जाएगी। जैसा ग्राहक होता है, वह वैसी ही चीज को तरफ देखता है। ८४. जीवन में थोड़ा-सा भी समय बहुत मूल्य रखता है। कभी-कभी ऐसे महत्त्वपूर्ण अवसर आते हैं, जिन पर आपके भावी जीवन का आधार होता है । उन बहुमूल्य क्षणों में अगर आप प्रमादमय होंगे तो आपका भावी जीवन बिगड़ जाएगा और यदि सावधान होंगे, आत्माभिमुख होंगे तो आपका भविष्य मंगलमयी बन जाएगा । ८५. दवाओं के सहारे प्राप्त तन्दुरुस्ती भी कोई तन्दुरुस्ती है। असली तन्दुरुस्ती वही है कि दवा का काम ही न पड़े। दवा तो बूढ़े की लकड़ी के समान है । लकड़ी हाथ में रही तब तक तो गनीमत और जब न रही तब चलना ही कठिन । इसी प्रकार दवा का सेवन करते रहे तब तक तो तन्दुरुस्त रहे और दवा छोड़ी कि फिर बीमार के बीमार । यह भी कोई तन्दुरुस्ती है ? ८६ जो वस्तु आत्मा के कल्याण में साधक नहीं है, उसकी कोई कीमत नहीं है । ८७. इस भ्रम को छोड़ दो कि जैन कुल में जन्म लेने से आप सम्यग्दृष्टि हो गये । इस खयाल में भी मत रहो कि किसी के देने से आपको सम्यग्दर्शन हो जाएगा; नहीं, सम्यग्दर्शन आपके आत्मा की ही परिणति है, एक अवस्था है । आपकी श्रद्धा, रुचि या प्रतीति की निर्मलता पर सम्यग्दर्शन का होना निर्भर है। शुद्ध रुचि ही सम्यग्दर्शन को जन्म देती है । ८८. कैसी भी रेतीली नदी बीच में आ जाए, धोरी बैल हिम्मत नहीं हारता । वह रास्ता पार कर ही लेता है । वह वहन किये भार को बीच में नहीं छोड़ता । इसी प्रकार सुदृढ़ श्रद्धा वाला साधक अंगीकार की हुई साधना को पार लगा कर ही दम लेता है । ८९. साधु-संतों का काम है जनता की शुभ और पवित्र भावनाओं को बढ़ावा देना; अप्रशस्त उत्तेजनाओं को, जो समय-समय पर दिल को अभिभूत करती हैं, दबा देना और इस प्रकार संसार में शान्ति की स्थापना के लिए प्रयत्नशील होना । ९०. मनुष्य की विवेकशीलता इस बात में है कि भूतकाल से शिक्षा लेकर वर्तमान को सुधारे और वर्तमान का भविष्यत् के लिए सदुपयोग करे। जिसमें नी भी बुद्धि नहीं, उसे मनुष्य कहना कठिन है । ९१. परमात्मा में न सुगंध है और न दुर्गन्ध है । उसमें न तोखा रस है, न कटुक है, न कसैला है, न खट्टा है और न मीठा है । वह सब प्रकार के स्पर्शो से भी रहित है । न कर्कश है, न कोमल है, न गुरु है, न लघु है, न शीत है, न उष्ण है, न चिकना है और न रूखा है। चौ. ज. श. अंक Jain Education International For Personal & Private Use Only ३७ www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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