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७२. निश्चय मानो कि सुख की कुंजी सन्तोष है, सम्पत्ति नहीं ; अतएव दूसरे की चुपड़ी देख कर ईा मत करो। अपनी रूखी को बुरा मत समझो और दूसरों की नकल मत करो।
७३ बीज बोना तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है, किन्तु बो देने के बाद इच्छानुसार अकूर पैदा नहीं किये जा सकते । अपढ़ किसान भी जानता है कि चने के बीज से गेहूँ का पौधा उत्पन्न नहीं होता, मगर तुम उससे भी गये-बीते हो । तुम सुख पाने के लिए कदाचरण करते हो।
७४. तीर्थकर कौन होता है । जगत् में अनन्त जीव हैं। उनमें जो ऊँचे नम्बर की करनी करता है, वह तीर्थकर बन जाता है।
७५. यह समझना मल है कि हम तुच्छ हैं, नाचीज़ हैं, दूसरे के हाथ की कटपुतली हैं, पराये इशारे पर नाचने वाले हैं, जो भगवान् चाहेगा वही होगा, हमारे किये क्या हो सकता है ? यह दीनता और हीनता की भावना है। अपने आपको अपनी ही दृष्टि में गिराने की जघन्य विचारधारा है। जीव का भविष्य उसकी करनी पर अवलम्बित है। आपका भविष्य आपके ही हाथ में है, किसी दूसरे के हाथ में नहीं।
७६. जब आपके चित्त में तृष्णा और लालच नहीं होंगे तब निराकुलता का अभूतपूर्व आनन्द आपको तत्काल अनुभव में आने लगेगा।
७७. मला आदमी वह है जो दुनिया का भी भला करे और अपना भी। जो दुनिया का भला करता है और अपना नुकसान कर लेता है, वह दूसरे नम्बर का भला आदमी है, लेकिन जो दूसरे का नुकसान करके अपना भला करता है, वह नीच है।
७८. जैसे सूर्य और चन्द्र का आकाश और दिशा का बँटवारा नहीं हो सकता, उसी प्रकार धर्म का बँटवारा नहीं हो सकता। जैसे आकाश, सूर्य आदि प्राकृतिक पदार्थ हैं, वे किसी के नहीं हैं, अतएव सभी के हैं, इसी प्रकार धर्म भी वस्तु का स्वभाव है और वह किसी जाति, प्रान्त, देश, या वर्ग का नहीं होता।
७९. धर्म का प्रांगण मंकीर्ण नहीं, बहुत विशाल है। वह उस कल्पवृक्ष के समान है जो समान रूप से सबके मनोरथों की पूर्ति करता है और किसी प्रकार के भेदभाव को प्रश्रय नहीं देता।
८०. नम्रता वह वशीकरण है जो दुश्मन को भी मित्र बना लेती है; पाषाण हृदय को भी पिघला देती है।
८१. वास्तव में नम्रता और कोमलता बड़े काम की चीजें हैं । वे जीवन की बढ़िया शृंगार हैं, आ{षण हैं, उनसे जीवन चमक उठता है।
८२. ज्ञान प्राप्त करने के लिए विनम्रता की आवश्यकता होती है। विनीत होकर ही ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७
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