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६०. प्रामाणिकता का ताकाजा है कि मनुष्य जो बेष धारण करे, उसके साथ आने वाली जिम्मेदारी का भी पूरी तरह निर्वाह करे। ऐसा करने में ही उस बेष की शोमा है।
६१. व्यापारी का कर्तव्य है, जिसे देना है, ईमानदारी से दे और जिससे लेना है उससे ईमानदारी से ही ले-लेनदेन में बेईमानी न करे।
६२. शील आत्मा का भूषण है । उससे सभी को लाभ होता है, हानि किसी को नहीं होती।
६३. सत्य सब को प्रिय और असत्य अप्रिय है। जो लोग लोम से, भय से या आशा से प्रेरित होकर असत्य का प्रयोग करते हैं, वे मी असत्य को अच्छा नहीं समझते । उनके अन्तःकरण को टटोलो तो प्रतीत होगा कि वे असत्य से घृणा करते हैं, और सत्य के प्रति प्रीति और भक्ति रखते हैं ।
६४. जब तक किसी राष्ट्र की प्रजा अपनी संस्कृति और अपने धर्म पर दृढ़ है तब तक कोई विदेशी सत्ता उस पर स्थायी रूप से शासन नही कर सकती।।
६५. अगर आप अपनी जुबान पर कब्जा करेंगे तो किसी प्रकार के अनर्थ की आशंका नहीं रहेगी। इस दुनिया में जो भीषण और लोमहर्षक काण्ड होते हैं, उनमें से अधिकांश का कारण जीभ पर नियंत्रण का न होना है।
६६. गुण आत्मा को पवित्रता की ओर प्रेरित करते हैं, दोषों से आत्मा अपवित्रकलुषित बनता है। गुण प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आत्मा को स्वरूप की ओर ले जाते हैं, जबकि दोष उसे विकार की ओर अग्रसर करते हैं।
६७. आत्मशुद्धि के लिए क्षमा अत्यन्त आवश्यक गुण है । जैसे सुहागा स्वर्ण को साफ करता है, वैसे ही क्षमा आत्मा को स्वच्छ बना देती है।
६८. अमृत का आस्वादन करना हो तो क्षमा का सेवन करो। क्षमा अलौकिक अमृत है। अगर आपके जीवन में सच्ची क्षमा आ जाए तो आपके लिए यही धरती स्वर्ग बन सकती है।
६९. कृषक धान की प्राप्ति के लिए खेती करता है तो क्या उसे खाखला (भूसा) नहीं मिलता है ? मगर वह किसान तो मूर्ख ही माना जाएगा जो सिर्फ खाखले ( भूसे) के लिए खेती करता है। इसलिए जहाँ तपस्या को आवश्यक बताया गया है, वहीं उसके उदेश्य की शुद्धि पर भी पूरा बल दिया है। उद्देश्य-शुद्धि के बिना क्रिया का पूरा फल प्राप्त नहीं हो सकता।
७०. भोग का रोग बड़ा व्यापक है। इसमें उड़ती चिड़िया भी फंस जाती है; अतएव इससे बचने के लिए सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये और चित्त को कभी गद्ध नहीं होने देना चाहिये।
७१. तीन बातें ऐसी हैं जिनमें सब्र करना ही उचित है--किसी वस्तु का ग्रहण करने में, भोजन में और धन के विषय में ; मगर तीन बातें ऐसी भी हैं, जिनमें सन्तोष धारण करना उचित नहीं है--दान देने में, तपस्या करने में, और पठन-पाटन में।
चौ. ज. श. अंक
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