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________________ ४९. जो भूत-भविष्यत् की चिन्ता छोड़कर वर्तमान परिस्थितियों में मस्त रहता है, वही जगत् में ज्ञानी है : सच पूछो तो ऐसे लोगों को ही वास्तविक आनन्द के खजाने की चाबी हाथ लगी है। ५०. मनुष्य जितना-जितना आत्मा की ओर झुकता जाएगा, उतना ही उतना सुखी बनता जाएगा। ५१ मिलावट करना घोर अनैतिकता है । व्यापारिक दृष्टि से भी यह कोई सफल नीति नहीं है । जो लोग पूर्ण प्रामाणिकता के साथ व्यापार करते हैं और शुद्ध चीजें बेचते हैं, उनकी चीज़ कुछ महंगी होगी और संभव है कि आरंभ में उसकी बिक्री कम हो, मगर जब उनकी प्रामाणिकता का सिक्का जम जाएगा और लोग असलियत को समझने लगेंगे तो उनका व्यापार औरों की अपेक्षा अधिक चमकेगा, इसमे संदेह नहीं । अगर सभी जैन व्यापारी ऐसा निर्णय कर लें कि हम प्रामाणिकता के साथ व्यापार करेंगे और किसी प्रकार का धोखा न करते हुए अपनी नीति स्पष्ट रखेंगे तो जैनधर्म की काफी प्रभावना हो, साथ ही उन्हें भी कोई घाटा न रहे। ५२. कोई चाहे कि दूसरों का बुरा करके मैं सुखी बन जाऊँ, तो ऐसा हाना संभव नहीं है । बबूल बोकर आम खाने की इच्छा करना व्यर्थ है । ५३ संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे पाकर तुम अभिमान कर सको, क्योंकि वह वास्तव मे तुम्हारी नहीं है और सदा तुम्हारे पास रहने वाली नहीं है। अभिमान करोगे ता आगे चलकर नीचा देखना पड़ेगा। ५४. इस विशाल विश्व में अनेक उत्तम पदार्थ विद्यमान हैं, परन्तु आत्मज्ञान से बढ़कर अन्य कुछ भी नहीं है । जिसने आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया, उसे कुछ प्राप्तव्य नहीं रह गया। ५५. आत्मा-आत्मा में फर्क नहीं है, फर्क है करनी में । जो जैसी करनी करता है, उसे वैसी ही सामग्री मिल जाती है। ५६. जो सुयोग मिला है, उसे संसार के आमोद-प्रमोद में विनष्ट मत करो, बल्कि आत्मा के स्वरूप को समझने में उसका सदुपयोग करो। ५७. किसी व्यक्ति के जीवन के सम्बन्ध में जब विचार करना हो तो उसके गुणों पर ही विचार करना उचित है । गुणों का विचार करने में गुणों के प्रति प्रीति का भाव उत्पन्न होता है और मनुष्य स्वयं गुणवान बनता है । ५८. अविवेकी जन अपने दोष नहीं देख पाते, पराये दोष देखते हैं; अपनी नित्दा नहीं करते, पराई निन्दा करते हैं। वे अपने में जो गुण नहीं होते, उनका भी होना प्रसिद्ध करते हैं और वर्तमान दोषों को ढंकने का प्रयत्न करते हैं, जबकि दूसरों में अविद्यमान दोषों का आरोप करके उनके गुणों को आच्छादित करने का प्रयास भी करते हैं। ५९. वास्तव में देखा जाए तो विकार देखने में नहीं, मन में है। मन के विकार ही कमी दृष्टि में प्रतिबिम्बित होने लगते हैं । मन विकार-विहीन होता है तो देखने से दृष्टा की आत्मा कलुषित नहीं होती। ३४ तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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