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________________ जीवन-व्यवहार चलाता है, वही उत्तम है, वही ऊँचा है, चाहे वह किसी भी जाति में उत्पन्न हुआ हो । उच्च-से-उच्च जाति में जन्म लेकर भी जो हीनाचारी है, पाप के आचरण में जिसका जीवन व्यतीत होता है और जिसकी अन्तरात्मा कलुषित बनी रहती है, वह मनुष्य उच्च नहीं कहला सकता । ४२. शुद्ध श्रद्धावान मनुष्य ही स्व-पर का कल्याण करने में समर्थ होता है । जिसके हृदय में श्रद्धा नहीं है और जो कभी इधर और कभी उधर लुढ़कता रहता है, वह संपूर्ण शक्ति से, पूरे मनोबल से साधना में प्रवृत्त नहीं हो सकता और पूर्ण मनोयोग के बिना कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती। सफलता श्रद्धावान को ही मिलती है। ४३. मिथ्यात्व से बढ़कर कोई शत्रु नहीं है । बाह्य शत्रु बाहर होते हैं और उनसे सावधान रहा जा सकता है, मगर मिथ्यात्व शत्रु अन्तर त्म। में घुसा रहता है, उससे सावधान रहना कठिन है। वह किसी भी समय, बल्कि हर समय हमला करता रहता है। बाह्य शत्र अवसर देखकर जो अनिष्ट करता है, उससे शौतिक हानि ही होती है, मगर मिथ्यात्व आत्मिक सम्पत्ति को धूल में मिला देता है। ४४. विज्ञान ने इतनी उन्नति की मगर लोगों की सुबुद्धि की तनिक भी तरक्की नहीं हुई । मनुष्य अब भी उसी प्रकार खूख्वार बना हुआ है, वह हिंसक जानवर की तरह एकदूसरे पर गुर्राता है और शान्ति के साथ नहीं रहता। अगर मनुष्य एक-दूसरे के अधिकारों का आदर करे और न्यायसंगत मार्ग का अनुसरण करे तो युद्ध जैसे विनाशकारी आयोजन की आवश्यकता ही न रहे । ____४५. हिंसा में अशान्ति की भयानक ज्वालाएँ छिपी हैं। उससे शान्ति कैसे मिलेगी ? वास्तविक शान्ति तो अहिंसा में ही निहित है । अहिंसा की शीतल छाया में ही लाभ हो सकता है। ४६. मनुष्य कितना ही शोभनीक क्यों न हो, यदि उसमें गुण नहीं है तो वह किस काम का ? रूप की शोभा गुणों के साथ है। ४७. याद रखो और सावधान रहो; दिन-रात, हर समय, तुम्हारे भाग्य का निर्माण हो रहा है । क्षण-भर के लिए भी अगर तुम गफलत में पड़ते हो तो अपने भविष्य को अन्धकारमय बनाते हो । सबसे अधिक सावधानी मन के विषय में रखनी है । यह मन अत्यन्त चपल है। समुद्र की लहरों का पार है, पर मन की लहरों का पार नहीं है। इसमें एक के बाद दूसरी ओर दूसरी के बाद तीसरी लहर उत्पन्न होती ही रहती है । इन लहरों पर नियन्त्रण रखना आवश्यक है । ८८. वर्तमान में जो कुछ भी प्राप्त है, उसमें सन्तोष धारण करना चाहिये । सन्तोष ही शान्ति प्रदानकर सकता है । करोड़ों और अरबों को सम्पत्ति भी सन्तोष के बिना सुखी नहीं बना सकती; और यदि सन्तोष है तो अल्प साधन-सामग्री में भी मनुष्य आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकता है । ३३ चौ. ज. श. अंक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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