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________________ ३२. जो मनुष्य अवसर से लाभ नहीं उठाता और सुविधाओं का सदुपयोग नहीं करता, उसे पश्चात्ताप करना पड़ता है और फिर पश्चात्ताप करने पर भी कोई लाभ नहीं होता। ३३. जो वस्तुएँ इसी जीवन के अन्त में अलग हो जाती हैं, जिनका आत्मा के साथ कुछ भी संबंध नहीं रह जाता है और अन्तिम जीवन में जिसका छट जाना अनिवार्य है, बे ही वस्तुएँ प्राप्त करना क्या जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य हो सकता है ? कदापि नहीं। महत्त्वपूर्ण कार्य है अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाना, और आत्मा को कल्याण के उस मार्ग पर ले जाना कि फिर कभी अकल्याण से भेंट ही न करनी पड़े। ३४. बहुत से लोग चमत्कार को नमस्कार करके चमत्कारों के सामने अपने आपको समर्पित कर देते हैं । वे बाह्य ऋद्धि को ही आत्मा के उत्कर्ष का चिह्न समझ लेते हैं और जो बाह्य ऋद्धि दिखला सकता है, उसे ही भगवान् या सिद्ध-पुरुष मानलेते हैं, मगर यह विचार भ्रमपूर्ण है । बाह्य चमत्कार आध्यात्मिक उत्कर्ष का चिह्न नहीं है और जो जानबूझकर अपने भस्तों को चमत्कार दिखाने की इच्छा करता है और दिखलाता है, समझना चाहिये कि उसे सच्ची महत्ता प्राप्त नहीं हुई है। ३५. परिवर्तन प्रकृति का नियम है । यह नियम जड़ और चेतन सभी पर समान रूप से लागू हाता है । फूल जो खिलता है, कुम्हलाता भी है ; सूर्य का उदय होता है, तो अस्त भी होता है ; जो चढ़ता है, वह गिरता है । ३६. संस्कृत भाषा में 'गुरु' शब्द का अर्थ करते हुए कहा गया है-'गु' का अर्थ अन्धकार है और 'रु' का अर्थ नाश करना है। दोनों का सम्मिलित अर्थ यह निकला कि जो अपने शिष्यों के अज्ञान का नाश करता है, वही 'गुरु' कहलाता है । ३७. अपने जीवन के जहाज को जिस कर्णधार के भरोसे छोड़ रहे हो, उसकी पहले जाँच तो कर लो कि उसे स्वयं भी राम्ता मालूम है या नहीं ? विज्ञ सारथी को ही अपना जीवन-रथ सुपुर्द करो; ऐरे-गैरे को गुरु बना लोगे तो अन्धकार में ही भटकना पड़ेगा। ....३८. किसी की निन्दा करके उसकी गंदगी को अपनी आत्मा में मत समेटो । गुणीजनों का आदर करो । नम्रता धारण करो। अहंकार को अपने पास मत फटकने दो। ३९. यह क्या इन्सानियत है कि स्वयं तो भला काम न करो और दूसरे करें और कीर्ति पावें तो उनसे ईर्ष्या करो ? ईर्ष्या न करके अच्छे-अच्छे काम करो। ४०. जिसका जितना विकास हुआ है उसी के अनुसार उसे साधना का चुनाव करना चाहिये और उसी सोपान पर खड़े होकर अपनी आत्मा का उत्थान करने का प्रयत्न करना चाहिये । ४१ मानव-जीवन की उत्तमता की कसौटी जाति नहीं है, भगवद्भजन है । जो मनुष्य परमात्मा के भजन में अपना जीवन अर्पित कर देता है और धर्मपूर्वक ही अपना ३ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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