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मनुष्य के हृदय की है। मनुष्य का हृदय जब कोमल होगा, तब उसकी अभिमानरूपी कठोरता हट जाएगी और उसमें धर्मरूपी अंकुर उग सकेगा।
१९. जूतों को बगल में जमा लेंगे, तीसरी श्रेणी के मुसाफिरखाने में जूतों को सिरहाने रखकर सोयेंगे, मगर चमार से घृणा करेंगे ? यह वया है ?
२०. ज्ञानी का ज्ञान उसे दुःखों की अनुभूति से बचाने के लिए कवच का काम करता है, जबकि अज्ञानी का अज्ञान उसके लिए विष-बुझे बाण का काम करता है।
२१ स्वाध्याय का अर्थ कण्ठस्थ किये हुए गद्य-पद्य को तोते की तरह बोलते जाना ही नहीं समझना चाहिये । जो पाठ बोला जा रहा है, उसका आशय समझते जाना और उसकी गहराई में मन लगा देना आवश्यक है ।
२२ भाई, तू चिकनी मिट्टी की तरह संसार से चिपटा है, अतः संसार मे फंस जाएगा। रेत के समान बनेगा तो संसार से निकल जाएगा।
२३. जैसे सूर्य और चन्द्र का, आकाश और दिशा का बंटवारा नहीं हो सकता, उसी प्रकार धर्म का भी बंटवारा संभव नहीं है । धर्म उस कल्पवृक्ष के समान है, जो समानरूप से सब के मनोरथों की पूर्ति करता है और किसी प्रकार के भेदभाव को प्रश्रय नहीं देता।
२४. बड़ों का कहना है कि मनुष्य को कम खाना चाहिये, गम खाना चाहिये और ऊँच-नीच वचन सह लेना चाहिये तथा शान्त होकर रहना चाहिये । गृहस्थी में जहां ये चार बातें होती हैं, वहां बड़े आनन्द के साथ जीवन व्यतीत होता है।
२५. जिस मार्ग पर चलने से शत्रुता मिटती है, मित्रता बढ़ती है, शान्ति का प्रसार होता है, और वलेश, कलह एवं वाद का नाश होता है, वह मार्ग सत्य का मार्ग है ।
२६. धन की मर्यादा नहीं करोगे तो परिणाम अच्छा नहीं निकलेगा । तृष्णा आग है, उसमें ज्यों-ज्यों धन का इंधन झोंकते जाओगे, वह बढ़ती ही जाएगी।
२७. धर्म सुपात्र में ही ठहरता है कुपात्र में नहीं ; इसलिए धर्मयुक्त जीवन बनाने के लिए नीतिमय जीवन की जरूरत होती है ।
२८. अपना भ्रम दूर कर दे और अपने असली रूप को पहचान ले । जब तक तू असलियत को नहीं पहचानेगा, सांसियों के चक्कर में पड़ा रहेगा ।।
२९. आत्मज्ञान हो जाने पर संसार में उत्तम-से-उत्तम समझा जाने वाला पदार्थ भी मनुष्य के चित्त को आकर्षित नहीं कर सकता ।
३०. जो पूरी तरह वीतराग हो चुका है और जिसकी आत्मा में पूर्ण समभाव जाग उठा है, वह कैसे भी वातावरण में रहे, कैसे भी पदार्थों का उसे संयोग मिले उसकी आत्मा समभाव में ही स्थित रहती है।
३१ क्रोध एक प्रकार का विकार है और जहाँ चित्त में दुर्बलता होती है, सहनशीलता का अभाव होता है, और समभाव नहीं होता वहीं क्रोध उत्पन्न होता है।
चौ. ज. श. अंक
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