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हो या चाण्डाल, क्षत्रिय हो या मेहतर हो, कोई किसी भी जाति का हो, कोई भी उसका उपार्जन कर सकता है ।
१०. राष्ट्र के प्रति एक योग्य नागरिक के जो कर्तव्य हैं, उनका ध्यान करो और पालन करो; यही राष्ट्रधर्म है । राष्ट्रधर्म का भलीभाँति पालन करने वाले आत्मधर्म के अधिकारी बनते हैं । जो व्यक्ति राष्ट्रधर्म से पतित होता है, वह आत्मिक धर्म का आचरण नहीं कर सकता।
११. यह अछूत कहलाने वाले लोग तुम्हारे भाई ही हैं इनके प्रति घृणा-द्वेष मत
करो।
१२. धर्म न किसी देश में रहता है, न किसी खास तरह के लौकिक बाह्य क्रियाकाण्ड में ही रहता है। उसका सीधा संबंध आत्मा से है । जो कषायों का जितना त्याग करता है, वह उतना ही अधिक धर्मनिष्ठ है, फिर भले ही वह किसी भी वेश में क्यों न रहता हो?
१३. अगर आप सुख प्राप्त करना चाहते हैं, तो आपको आत्म-शुद्धि करना पड़ेगी। आत्मशुद्धि के लिए आत्मावलोकन आवश्यक है । आत्मावलोकन का अर्थ यह नहीं कि आप अपनी मौजदा और गैरमौजूदा विशेषताओं का ढिंढोरा पीटें, अपन। बड़प्पन जाहिर करने का प्रयत्न करें; नहीं, यह आत्मावलोकन नहीं, आत्मवंचना है।
१४. बोतल में मदिरा भरी है और ऊपर से डांट लगा है । उसे लेकर कोई हज़ार बार गंगा जी में स्नान कराये तो क्या मदिरा पवित्र हो जाएगी ? नहीं। इसी प्रकार जिसका अंतरंग पाप और कषायों से भरा हुआ है, वह ऊपर से कितना ही साफ-सुथरा रहे, वास्तव में रहेगा वह अपावन ।
१५. आत्म-कल्याण का भव्य भवन आज खड़ा नहीं कर सकते तो कोई चिन्ता नहीं, नींव तो आज डाल ही सकते हो। आज नींव लगा लोगे तो किसी दिन शनैः शनैः महल भी खड़ा हो सकेगा । जो नींव ही नहीं लगाना चाहता, वह महल कदापि खड़ा नहीं कर सकता।
१६. ज्ञान का सार है विबेक की प्राप्ति और विबेक की सार्थकता इस बात में है कि प्राणिमात्र के प्रति करुणा का भाव जागृत किया जाए।
१७. धाय बालक को दूध पिलाती है, रमाती है फिर भी भीतर-ही-भीतर समझती है कि यह बालक मेरा नहीं पराया है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव धन-जन आदि की रक्षा करता है और उसका उपयोग भी करता है तथापि अन्तस् में जानता है कि यह सब पर पदार्थ है । यह आत्ममूल नहीं है ऐसा समझ कर वह उनमें गृद्ध नहीं बनता, अनासवत रहता है।
१८. किसी भी किसान से पूछो कि वह अपने खेत को बार-बार जोतकर कोमल क्यों बनाता है ? तो वह यही उत्तर देगा कि कठोर भूमि में अंकुर नहीं उग सकते । यही बात
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तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७
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