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________________ प्रवचन-मणियाँ १. धन चाहे जब मिल सकता है, किन्तु यह समय बार-बार मिलने वाला नहीं ; अतएव धन के लिए जीवन का सारा समय समाप्त मत करो। धन तुच्छ वस्तु है, जीवन महान् है । धन के लिए जीवन को बर्बाद कर देना कोयलों के लिए चिन्तामणि को नष्ट कर देने के समान है । २. धर्म, पंथ, मत या संप्रदाय जीवन को उन्नत बनाने के लिए होते हैं, उनसे आत्मा का कल्याण होना चाहिये ; किन्तु कई लोग इन्हें भी पतनका कारण बना लेते हैं। ३. आत्मा निर्बल होगी तो शरीर की सबलता किसी भी काम नहीं आयेगी । तलवार कितनी ही तेज क्यों न हो, अगर हाथ में ताक़त नहीं है तो उसका उपयोग क्या है ? ८. अहिंसा में सभी धर्मों का समाबेश हो जाता है, ठीक वैसे ही जैसे हाथी के पैर में सभी के पैरों का समाबेश हो जाता है । ५. जैसे मकान का आधार नींव है, उसी प्रकार मुक्ति का मूलाधार सम्यग्ज्ञान है । सम्यग्ज्ञान के अभाव में मोक्षमार्ग की आराधना कभी नहीं हो सकती । ... ६. धर्म पर किसी का आधिपत्य नहीं है । धर्म के विशाल प्रांगण में किसी भी प्रकार की संकीर्णता और भिन्नता को अवकाश नहीं है । यहाँ आकर मानव-मात्र समान बन जाता है । ७. जो धर्म इस जीवन में कुछ भी लाभ न पहुँचाता हो और सिर्फ परलोक में ही लाभ पहुँचाता हो, उसे मैं मर्दा धर्म समझता हैं । जो धर्म वास्तव में धर्म है, वह परलोक की तरह इस लोक में भी लाभकारी अवश्य है। ८. आपको दो नेत्र प्राप्त हैं । मानो प्रकृति आपको संकेत दे रही है एक नेत्र से व्यवहार देखो और दूसरे नेत्र से निश्चय देखो । एकान्तवाद प्रभु की आज्ञा के विरुद्ध है । ९. धर्म किसी खत या बगीचे में नहीं उपजता, न बाजार में मोल बिकता है। धर्म शरीर से-जिसमें मन और वचन भी गर्भित हैं-उत्पन्न होता है । धर्म का दायरा अत्यन्त विशाल है । उसके लिए जाति-विरादरी की कोई भावना नहीं है । ब्राह्मण चौ. ज. श. अंक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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