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देते हैं । सिद्धान्तहीनता से भी सिद्धान्त विपर्यास अधिक विनाशक होता है। ज़हर को न समझना भयावह है पर ज़हर को अमृत मान लेना तो सीधा ही विनाश का पथ है । गलत मान्यताओं और मिथ्या धारणाओं से समाज छिन्न-भिन्न हो जाता है । उसकी सारी सांस्कृतिक कड़ियाँ ही टूट जाती हैं । सामाजिक पतन, सामाजिक विघटन और सामाजिक व्याकुलता, भ्रान्त सिद्धान्तों का परिणाम होता है । समाजोत्थान और समाज कल्याण के लिए सिद्धान्तों का सही और आदर्शवादी होना बहुत ज़रूरी है । मिथ्या मूल्यांकन स्थापित होते ही समाज का ढाँचा बिगड़ने लगता है । यह किसी से छिपा हुआ तथ्य नहीं है ।
सिद्धान्तों की सही पहचान
समाज के प्रेय और श्रेय के लिए ऊँचे तथा उदार सिद्धान्तों की आवश्यकता है । महान् सिद्धान्तों के आधार पर ही कोई समाज तथा देश सर्वांगीण उन्नति कर सकता है। महान् सिद्धान्तों की पहचान यह है कि वे सर्वजनोपयोगी हों, अर्थात् सबके विकास, हित एवं उदय में सहायक हों। जिनसे बिना भेदभाव सर्वसाधारण को लाभ पहुँचता हो । जो सिद्धान्त चन्द लोगों के हित में और शेष जनता के अहित में हों; वे महान् सिद्धान्तों में सम्मिलित नहीं किये जा सकते । ऐसे सिद्धान्त जो कुछ लोगों को अधिकार से वंचित करते हैं और हीन बनाते हैं, वे चिरकाल तक चल नहीं सकते । वे मानवता के लिए कलंक होते हैं, उन्हें मिटाना पड़ता है । स्वार्थ- बुद्धि से विनिर्मित तुच्छ और परमार्थ- प्रेरित सिद्धान्त उदात्त होते हैं । भारतीय संस्कृति की विशेषता
भारतीय संस्कृति की यह विशेषता रही है कि उसके सांस्कृतिक दिव्य दृष्टाओं ने बहुत ही महान् और उदार सिद्धान्तों का निर्माण किया है । प्राणिमात्र के सुख की और हित की परिकल्पना की । मित्ति से सव्व भूएसु वैरं मज्झण केइ - हमारी सब के साथ मैत्री है किसी के साथ कोई वैर नहीं । मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे -- सबको मित्रता की दृष्टि से देखें । ये कितने व्यापक और महान् सिद्धान्त हैं ।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चन् दुख भाग् भवेत् ।।
सब सुखी बनें, सब नीरोग हों, सब कल्याण-मंगल पायें, कोई भी दुःखी न हो इस प्रकार की पवित्र और उदार भावनामय भारतीय संस्कृति के गौरवपूर्ण सिद्धान्त हैं । इन्हीं श्लाघ्य सिद्धान्तों के बल पर भारतीय संस्कृति फूली - फली है; विश्व पटल पर अपनी मौलिक छाप अंकित कर सकी है।
संकीर्ण सिद्धान्त
जब-जब संकीर्ण, भेदमूलक, स्वार्थरत सिद्धान्तों की रचना होती है, समाज टुकड़े-टुकड़े हो कर बिखर जाता है। एक समय था जब स्त्री शूद्रो नाधीयाताम्-(शेष पृष्ठ १३५ पर)
तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७
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