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दीक्षा स्थानकवासी सम्प्रदाय में हुई, से इनका परिचय हो गया । ऐसे अजैन किन्तु उनका कार्य-क्षेत्र केवल स्थानकवासी बन्धु स्वर्गीय मुनिश्री की स्मृति उनके समाज तक ही सीमित नहीं था। वे एक हृदय में संजोये हुए हैं। इस प्रकार उनका उदार विचार के सरल हृदय साधु थे तथा यश-कार्य अभी तक उन सीधे-साधे, भोले पूरे जैन समाज की एकरूपता में विश्वास लोगों को प्रेरणा देता रहता है और उनके करते थे, यही कारण है कि जिस युग में द्वारा स्वीकृत व्रत-पालन में बल प्रदान जैनधर्मान्तर्गत एक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय करता है। स्वर्गीय मुनिश्री के उपदेशों से को मिथ्यात्वी निरूपित करता था। एक केवल जन-साधारण की प्रभावित नहीं था, सम्प्रदाय के मुनिराज का दूसरी सम्प्रदाय अपितु राजा, मंत्री, धनी, निर्धन सभी वर्ग के साधु-साध्वियों से कोई सम्पर्क नहीं था, के लोग भी प्रभावित थे तथा सभी वर्ग अपितु एक-दूसरे को हल्की, निम्न दृष्टि के मध्य मुनिश्री लोकप्रिय थे। उनकी दृष्टि से देखते थे। अपनी-अपनी साम्प्रदायिक में समाज के उच्च कुल से संबन्धित तथा मान्यता के समर्थन में शास्त्रार्थ आयोजित निर्धन निम्न कुल से संबन्धित सभी प्रकार होते तथा शास्त्रार्थ या तत्व-निर्णय के नाम के जन समान थे तथा वह सबको समान पर वितण्डावाद होता था । यदा-कदा रूप से उपदेशामृत का पान कराते तथा हाथापाई की नौबत आ जाती । ऐसी सात्त्विक जीवन के लिए प्रेरणा देते रहते विपरीत परिस्थिति में जिस महात्मा ने थे। जैन ग्रन्थ में भी कहा गया है कि : जैनधर्मान्तर्गत एक सम्प्रदाय के साधुमुनिराज के दूसरी सम्प्रदाय के साधु
जहा पुण्णस्ए कत्थई, तहा तुच्छस्स कत्थई । मुनिराज के निकट लाने का प्रयास किया,
जहा तुच्छस्स कत्थई, तहा पुण्णस्य कत्थई ।। वे महात्मा मुनिश्री चौथमलजी ही तात्पर्य यह है कि स्व. मुनिश्री के थे। लगभग २६-२७ वर्ष पूर्व कोटा अमृत-तुल्य वचनों से सभी प्रकार के वर्ग (राजस्थान) में भिन्न सम्प्रदाय के साधु- ने लाभ उठा कर सात्त्विक जीवन व्यतीत मुनिराज के साथ एक पाट पर बैठ कर करने की प्रेरणा ली । मुनिश्री का तत्कालीन व्याख्यान दिया । इस ऐतिहासिक अवसर कई राजा-महाराजा पर इतना प्रभाव था पर जो भावुक थे तथा अखिल जैन एकता कि उन्होंने अपनी-अपनी रियासतों में में विश्वास रखते थे उनकी आँखें गीली पश-वध को विशेष दिनों में न करने के लिए हो गईं। यह हर्षातिरेक था। यह निकटता आदेश देकर सनदें दी । ऐसे स्वर्गीय का सूत्र इस लम्बे अंतराल में अधिक आगे मुनिश्री के प्रति में अपनी हार्दिक नम्र बढ़ गया तथा एक-दूसरे के अधिक निकट श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। आ गये। इस कारण संभवतः इस ऐतिहा
-सौभाग्यमल जैन, शाजापुर सिक शुभ प्रयास का महत्त्व कम आँके, किन्तु जिस विपरीत परिस्थिति के युग में यह
पतितोद्धारक प्रयत्न हुआ यह बड़ा साहसिक कदम था।
जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज इस प्रकार स्व. मुनिश्री को समन्वय का ।
के सान्निध्य में आने का मुझे जब भी सुयोग प्रेरक कहा जा सकता है।
मिला, उनकी स्नेहसिक्त अनुग्रहपूर्ण दृष्टि स्व. मुनिश्री ने जन-साधारण में रही और यह भी एक संयोग ही नहीं, जीवन व्यसन-त्याग का प्रचार इतना अधिक की सुखद स्मृति रहेगी कि मुनिराजश्री के किया था कि जिसके कारण मेवाड़, मालवा निधन से पूर्व कोटा में जब दर्शन हुए, तो वे आदि प्रदेशों में कई अजैन बन्धु (जो सामा- बहुत आह्लादपूर्ण थे । जैन मुनियों में ऐसे जिक तथा आर्थिक दृष्टि से कमजोर थे) प्रखर प्रक्ता, पतितोद्धारक और व्यक्तित्व
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तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७
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