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________________ गुणानुरागं स्वजने समानतां समस्तशास्त्रेषु विवेचनाधियम् । अवाप्तुमुत्को भवतिस्म सर्वदा दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ समता जनों में राग गुण में शास्त्र में अनुशीलना। को प्राप्त करने की सदा थी चौथमल की एषणा ।।१६।। दिनेन चाल्येन गुरोरुपासणादवाप्तविद्यागतशे मुषीधनः। सविस्मयं लोकममुं चकार स दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ थोड़े दिनों में गुरु कृपा से प्राप्त विद्या थी धनी। विस्मित जगत को कर दिया श्री चौथमल दिनकर मुनी ।।१७।। नयान्विता तस्य मनः मतिः सदा दधार दिव्यां प्रतिभांसभाङ्गणे। अतो जगद्वल्लभता मुपागतो दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः। थी सभा में प्रतिमा विलक्षण सर्वनय व्याख्यान में। अतएव जगवल्लभ बने श्री चौथमल सर्वलोक में ।।१८।। गुरुर्गरिष्ठो विवुधाधिपाश्रयाद् बुधोवरिष्ठो वसुधाधिपाश्रयाद् । अनाश्रयेणैव बभूव पूजितो दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः।। सुरराज आश्रय से वृहस्पति बुधवरिष्ठ नरेन्द्र से। आश्रय' बिना पूजित हुए श्री चौथमल देवेन्द्र से ।।१९।। गुणं गृहीत्वेक्षु रसस्य जीवनं प्रसून गन्धञ्च समेत्यराजते। परन्तु दोषोज्झित सद्गुणरयं दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ पा पुष्प गन्ध विराजते जल इक्षु के माधुर्य से। पर चौथमल मुनिराज तो निर्दोष सद्गुण पुञ्ज से ।।२०।। स संशय स्थान् विषयान् विवेचयजिनेन्द्र सिद्धान्त विदां समाजे। चकार सम्भाषण मोहितान्जनान् दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ संदिग्ध पद व्याख्यान कर शास्त्रज्ञ जैन समाज में। भाषण विमोहन की कला थी चौथमल मुनिराज में।।२१।। अपंडितास्सन्त्व थवा सुपण्डिताः विवेकिनस्सन्त्व विवेकिनोऽथवा। स्वभावतस्तं सततं समेऽननमन् दिवाकरचौथमलो मुनीश्वरम् ॥ पण्डित अपण्डित या विवेकी सर्वजन सामान्य हो। थे भाव से करते नमन श्री चौथमल को नम्र हो ।।२२।। नमस्कृतोऽपि प्रणतः क्षमापना मयाचत प्राणभृतः सभावनः। विरोध बुद्धि व्यरुणत स्वतो मिथो दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ जन प्रणत थे पर वे सदा जन से करें याचन क्षमा। था विरोध नहीं परस्पर चौथमल में थी क्षमा ।।२३।। चौ. ज. श. अंक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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