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________________ पिताऽभव द्धन्य तमोजन प्रियः गंगायत राम नामकः। निरीक्ष्य लोकेषु सुकीर्ति मौरसं दिवाकरं चौथमलं मुनीश्वरम् ॥ था पिता गंगाराम नामक धन्य सुत को देखकर। सब लोक में विख्यात औरस चौथमल ज्यों ऊण्णकर ।।८।। अयं महात्मा सततं जिनप्रियो जिनेन्द्रवार्ता श्रवणोत्सुकः सदा। देहात्मचिंतापित धीरजायत दिवाफरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ था सतत जनप्रिय ये मुनि अर्हत कथा सुनता सदा। देहात्मचिंतारत मनस्वी चौथमल मुनिराज था ।।९।। विनश्वरं पुष्कल कर्मसम्भव देहं प्रपुष्णन् मदमेतिमानवः। इति प्रचिताज्वलनेन दीपितो दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ दिन रात नश्वर देह के पोषण निरत जन हृष्ट है। चिन्ता शिखा दीपित मुनीश्वर चौथमल अति श्रेष्ठ है।।१०।। समुद्र मार्गाक्षिनवेन्दु वत्सर (1934) त्रयोदशी कार्तिक शुक्ल पक्षजे। दिने केसरवाई तोऽभवद् दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ उन्नीस सौ चौंतिस त्रयोदशि शुक्ल कार्तिक पक्ष में। थे हुए केसरबाई के रवि दिन दिवाकर कक्ष में ।।११।। सनेत्रबाण ग्रहचन्द्रहायने (1952) शुभे सिते फाल्गुन पंचमी तिथौ। व्रताय दीक्षां प्रयतो गृहीतवान् दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ बावन अधिक उन्नीस सौ फाग्न तिथी सित पञ्चमी। ली थी मुनीश्वर चौथमल व्रत हेतु दीक्षा संयमी ।।१२।। न दुर्लभा नन्दन कानने गतिः न चाप्य शक्यो जगतः सुखोद्भवः। विवेद सम्यक्त्व मति सुदुर्लभां दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ दुर्लभ नहीं नन्दन गमन नहि लोकसुख की प्राप्ति ही। सम्यक्त्व पाना है कथिन श्री चौथमलजी मति यही ।।१३।। यथात्मपित्तादिवशाद् विलोक्यते सितः पदार्थोऽपि हरिद्ररागवान् । अलिस्तथैवेति विवेद सर्वथा दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः॥ ज्यों पित्त दुषित नेत्र से सित वस्तु पीला दीखता। त्यों भ्रमजनों को सर्वथा यह चौथमल था दीपता ।।१४।। अयं महात्मा सकलेऽपि भारत स्वतेजसा धर्षित दुर्गणाशयः। पद प्रणायेन मुदं समीयिवान दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः।। निज तेज धर्षित दुष्टजन को कर अखिल इस भुवन में। दिनकर मुनीश्वर चौथमल सुख मानता पदगमन मे ।।१५।। ९४ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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