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उनसे शेर सुनते थे। शेर सुनाते नहीं थे। उनके लिखे खतूत कीमती शेरों के खजाने होते हैं। वक्त की बेबसी और परेशानी पर उनके पढ़े हुए शेर अपना सानी नहीं रखते हैं। उनके ख़त हमारे घर की धरोहर है। पिताजी ने 'शेर-ओ-शाइरी' उन्हीं को नज़र की है। पिताजी ने अपनी उर्दू पुस्तकों और कथा-कहानी में जगह-जगह उनकी तारीफ की है। बेशुमार शानदार मुशाइरे आपके बँगले पर हुए हैं। अनेक शुअरा उनके दस्तरखान पर तोश फ़र्मा चुके हैं। उनकी कोठी पर महीनों मेहमान रहे हैं। उनसे पिताजी को अपने अनुज सा स्नेह रहा है। उनसे, चाचीजी (श्रीमती सत्या जैन) और अपने भतीजों से पिताजी को बेहद मोहब्बत थी। ताऊजी : श्री नन्हेंमलजी जैन
'जैन संगठन सभा' ने एक और घनिष्ठ हितैषी दिया है। वे हैं ताऊजी लाला नन्हेंमल जी जैन। पहले यह परिचय प्रगाढ़ प्रेम में और फिर भाई के रिश्ते में परिणत हो गया। कुछ ही दिनों में दोनों दो शरीर एक प्राण जैसे सखा हो गये। शानदार दावत देने का उन्हें बहुत शौक़ था। वे बहुत बड़े मुन्तज़िम थे। उनकी व्यवस्था हर तरह से मील का पत्थर होती । उनमें गजब की भविष्य-दृष्टि थी। वे बहुत उदार और सुन्दर थे। मेरे जन्म पर उन्होंने पहाड़ी धीरज पर बढ़िया दावत की थी। ख़र्च करने में उनका हाथ खुला हुआ था। सन् १९२५ से आज तक ताऊजी के परिवार से वही पारिवारिक रिश्ता निभ रहा है। जैनेन्द्रजी
पिताजी से उनका परिचय सन् १९२५ से है । पिताजी के शब्दों में"जैनेन्द्रजी सभा में आते। हर विषय पर अपनी मौलिक राय देते। सभा में बैठते लगता कोई बड़ा आदमी बैठा हुआ है। जैनेन्द्र की ‘पर्सनेलेटी' बहुत ही शानदार है। जैनेन्द्र पर किसी का रौब ग़ालिब नहीं होता। वह पैदायशी बड़ा आदमी है। वह गाँधी के पास हो गाँधी को अहसास होगा, सामने जैनेन्द्र बैठा हुआ है। जैनेन्द्र को क्रोध नहीं आता। जैनेन्द्र पहले एक शब्द पर कहानी, उपन्यास लिखने की क्षमता रखते थे, अब एक वाक्य शुरू का दूसरा व्यक्ति कहे और जैनेन्द्र जी उस पर उपन्यास, कहानी लिख देंगे। क्या ख बसूरत ढंग से जैनेन्द्र अपनी कहानियाँ सुनाते हैं। हमेशा से देश-विदेश के बड़े आदमी जैनेन्द्र के पास आते रहे हैं । जैनेन्द्र ने मुझे हमेशा स्नेह दिया है। साहित्य में मुझे प्रोत्साहन दिया है। जैनेन्द्र-साहित्य को जैनेन्द्र की जुबानी सुनो तब उसका लुत्फ़ देखो। कैसा ही समारोह हो, जैनेन्द्र सब पर छा जाते हैं।"
पिताजी की तबियत में बेहद मज़ाक़ रहा है । वे उन दिनों 'वीर' के सम्पादक थे। जैनेन्द्रजी की शादी हुई ही थी। पिताजी 'वीर' के लिए लेख लेने जैनेन्द्रजी के घर गये थे। जैनेन्द्रजी की पत्नी ने पिताजी को पहले कभी देखा नहीं था।
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तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७
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