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जैनेन्द्रजी की पत्नी ने पूछा-"कौन ?" "चपरासी ! 'वीर' के लिए लेख लेना था। पिताजी ने उत्तर दिया ।
“वीर से चपरासी लेख लेने आया है," यह कहते जैनेन्द्रजी की पत्नी अन्दर गयीं ।
थोड़ी देर में जैनेन्द्रजी बाहर आये। पिताजी को देख हँसते हुए बोले"अरे भई गोयलीय ! आओ, आओ। मज़ाक छोड़ो । अन्दर आओ।"
सन् १९४३-४४ में पिताजी डालमियानगर में नियम से अंग्रेज़ी चाचाजी से (परिष्कृत सुरुचि और स्वर के मालिक श्री नेमीचन्दजी जैन, एम. एस-सी., साहू जैन प्रतिष्ठान) पढ़ रहे थे । पढ़ाई की गति बहुत अच्छी चल रही थी। तभी श्री जैनेन्द्रजी डालमियानगर पधारे । बातों-बातों में पिताजी ने कहा-“जैनेन्द्रजी, मैं आजकल अंग्रेज़ी पढ़ रहा हूँ।"
जैनेन्द्र-"अंग्रजी, हरगिज मत पढ़ना।" गोयलीय-"क्यों ?" जैनेन्द्र-“क्लर्क होकर रह जाओगे।" गोयलीय-"बहुत ठीक" (बात बहुत जॅचने पर पिताजी यही कहते थे)।
उसी दिन से पिताजी ने अंग्रजी का अभ्यास छोड़ दिया । सन् १९४४ से १९६९ तक उन्होंने डालमियानगर में २५ पुष्पों से सरवस्ती की वन्दना की । यदि वे अंग्रेज़ी के पठन-पाठन में लगे रहते, संभवतः वे इस साहित्य-सृजन से वंचित हो जाते । इस साहित्य-सेवा का श्रेय वे बहुत हद तक जैनेन्द्रजी को देते । जैनेन्द्रजी के सम्मानित होने पर वे बहुत गौरव महसूस करते थे। डालमियानगर में
१ अप्रैल १९४१ से ५ जुलाई १९६८ तक पिताजी साहू शान्तिप्रसादजी के प्रेमाग्रह पर डालमियानगर में रहे। वहाँ आप श्रम कल्याण पदाधिकारी थे। दो-दो विशाल लायब्रेरी एवं श्रमिक एमनीटीज़ एवं मनोरंजन-विभाग के कार्य को उन्होंने बहुत कुशलता से निभाया। वे सांस्कृतिक उत्सव (क्षमावणी-उत्सव, परिहास और मूर्ख-सम्मेलन), साहित्यिक उत्सव (तुलसी जयन्ती, रवीन्द्र-जयन्ती, कवि-सम्मेलन एवं कवि दरबार) एवं होली का जलसा करते । अब ये सब यहाँ की रीत हो गये हैं। सभी उत्सव निश्चित समय यानी 'गोयलीय टाइम' पर होते। 'गोयलीय टाइम' यहाँ मशहूर रहा है। सार्वजनिक निमन्त्रण, ऑफिस, फैक्ट्री-गेट, क्लब में लगा दिये जाते। उसे ही देखकर, पढ़कर सब अपने को निमन्त्रित समझते । जौकदर-जौक लोग उत्सव में आते । गोष्ठी में सभी बाअदब और बातहज़ीब बैठते । सम्मेलन का संचालन इतने प्यारे ढंग से होता कि बीच में से उठने का कोई नाम
चौ. ज. श. अंक
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