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नहीं लेता था। पिताजी के लतीफ़े, फड़कते शेर, जुमले, सभा में मस्ती का सरूर ला देते । सभा-संचालन में वे अपने सहयोगियों को आगे बढ़ाते । सारा श्रेय अपने सहयोगियों को देते। 'भारतीय ज्ञानपीठ'
___ सन् १९४४ में 'भारतीय ज्ञानपीठ (काशी) प्रकाशन' की स्थापना साहूदम्पति से करवायी। पिताजी इसके १४।। वर्षों तक अवैतनिक मंत्री रहे। भारतीय ज्ञानपीठ और गोयलीयजी एक आत्मा की तरह रहे। स्वप्न में भी पिताजी को 'भारतीय ज्ञानपीठ' और उसके मासिक पत्र 'ज्ञानोदय' का हित और प्रसार दिखायी देता। हमेशा 'भारतीय ज्ञानपीठ' प्रकाशन-स्तर और पुस्तकों का मैटर गेटअप, बुकशेल्फ़ में रक्खी अन्य सभी पुस्तकों से बेहतर हो, इसी की योजना और मेहनत होती। भारतीय वाङमय के मनीषी चिन्तकों ने पिताजी के सत्प्रयत्न की मुक्तकंठ से प्रशंसा की। प्रकाशित पुस्तकों के लेखक अपने को धन्य समझने लगे। पुस्तकों की रॉयल्टी एवं तनख्वाह लेखकों तथा ज्ञानपीठ स्टाफ़ को निश्चित समय पर मिले, इस प्रयास में वे हमेशा सफल रहे।
'ज्ञानोदय' मासिक पत्र भी पिताजी के सम्पादन में प्रकाशित हुआ। श्रमणसंस्कृति का प्रतीक 'ज्ञानोदय' प्रबुद्ध जनता का डाइजेस्ट हो गया। 'ज्ञानपीठ' का 'सन्मति मुद्रणालय' पिताजी की भविष्य-दृष्टि ने खुलवाया। पिताजी ने अपने को हमेशा 'ज्ञानपीठ' का प्रहरी माना। इसे भाई साहब श्री अखिलेश जी शर्मा (सम्पादक 'नया जीवन' और 'विकास') की जुबानी सुनिये
“सन् १९५३ में भारतीय ज्ञानपीठ कार्यालय (काशी) का जाना हुआ। वहाँ गोयलीयजी डालमियानगर से पधारे हुए थे। गोयलीयजी अपने कार्यालय में थे। आराम का वक्त था। वे अपने बिस्तर पर विश्राम कर रहे थे। उसी समय 'ज्ञानपीठ' के तत्कालीन मैनेजर आये। आदेशानुसार तकिये के पास रखा लिफाफ़ा
और रखी हुई दुअन्नी उठा ली। मुझे लिफाफे पर रखी दुअन्नी की बात समझ में नहीं आयी। कार्यालय में मैनेजर से बातचीत के दौरान पूछा। मैनेजर ने बताया"मंत्रीजी, व्यक्तिगत डाक में ज्ञानपीठ का पोस्टेज खर्च नहीं करते हैं। दुअन्नी टिकट के लिए दी है।"
पिताजी ने नवम्बर १९५८ में भारतीय ज्ञानपीठ' से इस्तीफा दे दिया। त्यागपत्र देने के बाद पिताजी ने ज्ञानपीठ के सभी मातहत स्टाफ एवं कर्मचारी (मैनेजर से चपरासी तक) को पत्र लिखकर उनके अथक सहयोग एवं परिश्रम की सराहना की; जिसमें उन्होंने अपने श्रम और अपनी सेवा को साधारण बताते हुए यह शेर लिखा था
'यह चमन यूं ही रहेगा और हजारों जानवर।
अपनी-अपनी बोलियाँ सब बोलकर उड़ जाएंगे ।। १५०
तीर्थकर : नव. दिस. १९७७
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