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सन् १९५९ में वे सपरिवार मसूरी गये। सिन्ध पंजाब होटल (कुलड़ी) में एक माह रहे। वहाँ उन्होंने सेवोय होटल में 'कोल्ड-ड्रिंक' पिलवाया। महापंडित राहुलजी और डॉ. श्री सत्यकेतुजी से मिलाने ले गये। दोनों परिवार का हार्दिक स्वागत आज भी स्मृति-पटल पर अंकित है।
आदरणीय राहुलजी का स्नेह और प्रोत्साहन पिताजी को शेर-ओ-शाइरी से निरन्तर मिलता रहा है। राहुलजी ने दिल्ली की सार्वजनिक सभा में (इसी) दिल्ली के अयोध्याप्रसाद गोयलीय की उर्द शाइरी की खिदमत का ज़िक्र किया। "उर्दू अमर हो” शीर्षक से 'सरस्वती' में पिताजी पर लेख (सम्भवत: जुलाई-अगस्त १९५८) लिखा । अन्यत्र ग्रंथों में यहाँ तक कि अपनी आत्मकथा में भी उन्होंने पिताजी की विशिष्ट मूक साहित्य-साधना का महृदयता से उल्लेख करने की कृपा की है।
पिताजी राहुलजी का ज़िक्र हमेशा अदब के साथ करते । उन्होंने अपने 'शाइरी के नये दौर' ग्रन्थ को भेंट करते हुए लिखा है'श्रद्धेय राहुलजी,
उच्च शिखर पर स्वयं ही नहीं बैठे, अपितु तलहटी में भटकते हुओं को भी उबारते रहते हैं। आपकी महानता, मानवता और विद्वत्ता के प्रति 'शाइरी के नये दौर' के समस्त दौर श्रद्धापूर्वक समर्पित--
है एक दरे-पीरे-मुगाँ तक ही रसाई ।
हम बाद परस्तों का कहाँ और ठिकाना ।। उर्दू कैसे सीखी : पिताजी की जुबानी “मेरे अज्ञात हितैषी !
न जाने इस वक्त तुम कहाँ हो ? न मैं तुम्हें जानता हूँ और न तुम मुझ जानते हो, फिर भी तुम कभी-कभी याद आते रहे हो। बकौल फ़िराक़ गोरखपुरी
मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें।
और हम भूल गये हों, तुझे ऐसा भी नहीं ।। तुम्हें तो २७ जनवरी १९२१ की वह रात स्मरण नहीं होगी, जबकि तुमने मुझे अन्धा कहा था। मगर मैं वह रात अभी तक नहीं भूला हूँ। रौलेटएक्ट के आन्दोलन से प्रभावित होकर मई १९१९ में चौरासी-मथुरा-महाविद्यालय से मध्यमा की पढ़ाई छोड़कर मैं आ गया था और कांग्रेसी कार्यों में मन-ही-मन दिलचस्पी लेने लगा था। उन्हीं दिनों सम्भवतः २६ जनवरी १९२१ ई. की बात है, रात को चाँदनी-चौक से गुजरते समय बल्लीमारान के कोने पर चिपके हुए कांग्रेस के उर्दू पोस्टर को खड़े हुए बहुत से लोग पढ़ रहे थे। मैं भी उत्सुकतावश वहाँ पहुंचा और उर्दू से अनभिज्ञ होने के कारण तुमसे पूछ बैठा-"बड़े भाई ! इसमें
चौ. ज. श. अंक
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