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का अर्थ उनसे नहीं छूटता। आचार्य जयसेन ने अपनी तात्पर्यवृत्ति में इस अर्धाली का अर्थ तो किया, परन्तु एक शब्द बदल दिया अथवा किसी प्रति में लिपिकार के कारण पाठ ही ऐसा प्राप्त हुआ होगा। वह अर्भाली है 'अपदेस सुत्त मज्झं' आचार्य जयसेन ने इस पाठ का अर्थ 'सुत्त' शब्द को 'जिण-सासणं' का बलात् विशेषण मान कर किया है और उत्तरवर्ती पं. जयचन्द आदि सभी बुद्धिजीवी वर्ग को 'सुत्त' पाठ ने अनेक विद्वानों के मस्तिष्क की यात्रा की और आखिर उलझा ही रक्खा। जयसेन ने 'सुत्त' शब्द का अर्थ 'श्रुत' मान कर उसका विशेषण भावश्रुत और द्रव्यश्रुत के रूप में किया। क्या मोमबत्ती दोनों सिरों पर जल सकती है? कोई भी अर्थ आगम, व्याकरण और शब्दकोश द्वारा सम्यग्ज्ञान से परीक्षित होने पर ही ग्राह्य होता है अन्यथा रूप में शब्द नाम मात्र यदि भ्रान्तिवश ग्रहण किया जाए तो वह भद्र तथा स्व-पर-उद्धारक नहीं बल्कि अनर्थ का ही कारण होता है। इस अर्थ को पं. वंशीधर न्यायालंकार ने क्लिष्ट कल्पना माना है। उनकी दृष्टि से इस गाथा में ये सब 'अप्पाणं' का विशेषण होना चाहिए; 'जिण सासणं' का नहीं। डा. ए. एन. उपाध्ये ने भी 'अपदेससंतमझं' पाठ को ही ठीक माना है। पं. जुगल किशोर मुख्तार ने इस विषय पर एक लेख 'अनेकान्त' मासिक में प्रकाशित करवाया था और इस गाथा के सही अर्थ बतानेवाले को पुरस्कार देने की घोषणा भी की थी। अभी तक स्थिति वैसी ही रही है। जब हम जैन नगर, जगाधरी (हरियाणा राज्य) में चातुर्मास थे आचार्य श्री तुलसीजी और प्राकृत भाषा तथा दर्शन शास्त्र के सुप्रसिद्ध विद्वान् मुनि श्री नथमल ने 'समय
का स्वाध्याय करते समय १५ वीं गाथा के बारे में वहाँ तीन पत्र भेजे थे। उस समय इस पंक्ति का अर्थ और 'अपदेस-सुत्त-मज्झं' पाठ का समुचित समाधान हम नहीं कर सके। उन्होंने हमें तत्काल पत्र द्वारा सुझाव दिया था कि प्राचीन प्रतियों द्वारा 'समयसार' ग्रंथ का प्रामाणिक पाठ के साथ संपादन होना परम आवश्यक है। हमने भी उसके बाद ही समूचे भारत के ग्रंथ-भण्डारों से 'समयसार' की हस्तलिखित प्रतियों का संकलन किया और पाठ-भेद एवं अर्थ पर गम्भीर अनुचिन्तन, अन्वेषण के साथ रोमन्थन किया और निर्दिष्ट पाठ के सम्बन्ध में इस निष्कर्ष पर पहुँच गये हैं, अन्वय अर्थ--इस प्रकार किया है, और इस तरह इसे बीसवीं शताब्दी की हमने एक बड़ी उपलब्धि मानी है। प्राकृत भाषा और 'समयसार' के अनुचिन्तकों से सुझाव अपेक्षित हैं। _ -आचार्य कुन्दकुन्द ने 'समयसार' (गाथा १५) में 'गागर में सागर' की कहावत को चरितार्थ किया है यानो--स्वल्पाक्षरों के द्वारा पारिणामिक तथा क्षायिक भाव को दर्शाया हैजो भव्य आत्मदर्शी है वह जिनशासनदर्शी है
जो पस्सदि अप्पाणं अबद्ध पुठं अणण्णमविसेसं। अपदेससंतमज्झं पस्सदि जिणसासणं सव्वं ।।।
-आचार्य कुन्दकुन्द, समयसार, १।१५ सान्वय अर्थ--(जो) जो भव्य पुरुष (अप्पाणं) आत्मा को (अबद्धपुळं) बंधरहित और पर के स्पर्श से रहित (अणण्णं) अनन्य-अन्यत्व-रहित (अविससं) अविशेष-विशेष-रहित-उपलक्षण से नियत तथा असंयुक्त (अपदेस) - प्रदेशरहितअखण्ड (संत) २– शान्त-प्रशान्त रस से आपूर्यमाण (मज्झं) ३-अपने अन्दर (पस्सदि)
चौ. ज. श. अंक
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