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________________ न काष्ठे विद्यते देवो न पाषाणे न मृण्मये । भावे हि विद्यते देवस्तस्माद् भावो हि कारणम् ।। (देवता न काष्ट में है, न पत्थर में और न मिट्टी में, वह तो मनुष्य के अपने भावों में बिराजमान है; अत: भाव ही देवत्व की प्रतिष्ठा में मुख्य है)। 'प्रातःकाल घूमने से स्वास्थ्य उत्तम रहता है', इस सूत्र का लाभ उठाने के लिए यदि कोई बन्द गाड़ी में बैठकर मैदान हो आये तो क्या सूत्र का भाषित उसे फलेगा? इसी प्रकार मन्दिर जाने मात्र को धार्मिकत्व का लक्षण मानने वाला और जीवन-व्यवहार में भिन्न आचरण करने वाला क्या आस्तिक' कहा जा सकेगा ? उद्यान में जाने वाला अनायास ही पुष्पों के सौरभ को प्राप्त करता है और लौटते समय एक-दो पूष्प उसके हाथ में होते हैं । यदि मन्दिर जाने वाला सर्वज्ञ भगवान् के दर्शन कर खाली हाथ, खाली मन लौट जाता है तो उसकी जड़ता को देने योग्य पुरस्कार किसके पास है ? मन्दिर और भगवान् की प्रतिमा तो भाव-राशि को उद्वेलित करने के साधन मात्र हैं वहाँ से भावों में (परिणामों में) दिव्यता प्राप्त करने की प्रवृत्ति नहीं ला सके तो मन्दिर जाने को ही साध्य मान बैटने की भूल का संशोधन कब करोगे ? यह तो छिलका खाने और रस फेंकने जैसी बात हुई । जैसे शिल्पकार पत्थर में से सर्वांगपूर्ण मूर्ति का आविर्भाव कर लेता है, वैसे ही चारित्र की साधना करने वाला अपने व्यक्तित्व में अलौकिक सौन्दर्य की उद्भावना करता है । चारित्र से मन पवित्र हो तो, मन की पवित्रता आकृति पर झलकती है, जैसे मथा हुआ नवनीत दही से अलग ऊपर तिरने लगता है । इस प्रकार मनुष्य का वास्तविक देवालय उसका चारित्र है। मन्दिर, गिरिजाघर, मस्जिद और उपासना-गृह उस चारित्र लब्धि के नामान्तर हैं । यदि इनमें नियमित उपस्थिति देने वाला भी चारित्रहीन है तो वह उसकी अपनी अयोग्यता है । 'समयसार' की पन्द्रहवीं गाथा __ "कोई भी शब्द आगम, व्याकरण और शब्दकोश द्वारा सम्यग्ज्ञान से 3 परीक्षित होने पर ही ग्राह्य होता है, अन्यथा वह भद्र तथा स्व-पर-उद्धारक नहीं बल्कि अनर्थ का कारण होता है। यह पन्द्रहवीं गाथा अध्यात्म-क्षेत्र और जैन जगत् के विद्वानों के मध्य सदैव, जटिल तथा गूढ़ समस्या का विषय रही है। आज से ही नहीं आचार्य प्रवर अमृतचन्द्र जैसे महान् प्रतिभा संपन्न के समय से ही है। उन्होंने भी इस गाथा को दूसरी पंक्ति की पहली अर्द्धाली 'अपदेस संत मज्झं' आचार्य कुन्दकुन्द के स्वल्पाक्षरविशिष्ट शैली का अर्थ नहीं किया। अवश्य ही उन्हें भी इस अर्द्धाली का स्पष्ट अर्थ ज्ञात नहीं हुआ अथवा उसे संदिग्ध समझकर छोड़ दिया। अन्यथा इस पंक्ति १२६ तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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