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________________ चारित्र ही मन्दिर है चारित्र से मन पवित्र हो तो मन की पवित्रता आकृति पर झलकती है ; जैसे मथा हुआ नवनीत दही से अलग ऊपर तिरने लगता है । - उपाध्याय मुनि विद्यानन्द चारित्र ही मन्दिर है अर्थात् मन्दिर के समान पवित्र है। मन्दिर भगवान की प्रतिमा के मांगल्य से उपयुत है, मंगल-भवन है। धर्म और आत्म-संस्कार को नित्य नवीन करने के लिए मन्दिरों में जाने की विधि है । धर्म-भावना और आत्म-संस्कार से चारित्र की रत्नवेदी का निर्माण होता है । पुष्प की मुस्कान को देखते-देखते व्यक्ति स्वयं मुस्काने लगता है और जिनेश्वरों की वीतराग-मुद्रा के दर्शन करने से मन पर उनकी गुणावली का संक्रमण होता है। यह तद्गुण संक्रमण जब आचरण का अभिन्न अंग बन जाता है तब व्यक्ति मन्दिर-स्वरूप बन जाता है। इसी अर्थ में चारित्र को मन्दिर कहा गया है। सम्यक चारित्र के देवालय समान पीठ पर भगवान बिराजते हैं । मनुष्य अपने चारित्र से 'आत्म मन्दिर' का निर्माण करने में स्वतन्त्र है। अपने ही त्यो से वह इसे मदिरालय भी बना सकता है । प्रतिक्षण अपने देह को 'आत्मा' का पवित्र आगार मानकर ‘मन्दिर' समान रखे, यह चारित्रवान् व्यक्ति का नैतिक कर्त्तव्य है। व्यक्ति के व्यक्तित्व को लोक उसके आचरण की कसौटी पर रखते हैं। वह अपनी दिनचर्या कैसी रखता है, इसी आधार पर 'वह क्या है ?' का निष्कर्ष फलित होता है; अत: मन्दिर जाने वाले के प्रति यदि चारित्रवान् होने का अनुमान कोई करे, तो उसकी युक्ति को असंगत नहीं कहा जा सकता । 'यत्र धुमस्तत्र वह्नि' जहाँ धुआँ है, वहाँ अग्नि है, यह तो व्याप्तिसाहचर्य का नियम है । इस प्रकार 'जहाँ चारित्र है, वहाँ मन्दिर है' कहना उपचार से चारित्रशील को मन्दिर-समान अभिहित करना है। जैसे मन्दिर से देवालयत्व को पृथक् नहीं किया जा सकता, वैसे चारित्र के प्रासाद को पवित्रता में मन्दिर के उपमान से हीन नहीं किया जा सकता । चारित्र का पालन आत्मना किया जाता है । वह बाह्य प्रदर्शन का अलंकार न होकर आन्तरिक शील की आधारशिला है। जैसे स्फटित मणि में छाया संक्रान्त होती है, उसी प्रकार चारित्र में से व्यक्ति की पवित्रता झलकती है। मोक्ष के साथ चारित्र का अविनाभावी सम्बन्ध है । जो लोग मन्दिर से लौटकर अपने व्यवसाय में विशुद्ध नहीं रहते, मिलावट करते हैं अथवा वस्तु के मूल्यांकन में अनौचित्य रखते हैं, 'चारित्र और मन्दिर' से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है । कहा है चौ. ज. श. अंक १२५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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