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________________ • • “किन्तु भूलकर भी आत्महत्या नहीं करूँगा "गरूजी ! मैं आत्महत्या करने के लिए जंगल में जा रहा हूँ।" एक बेझिझक आवाज ने श्री जैन दिवाकरजी महाराज को भीलवाड़ा से आगे बढ़ते हुए चौंका दिया। पीछे से आयी यह अनजानी आवाज एक घबराये हुए निराश युवक की थी। ‘आत्महत्या' शब्द सुनकर श्री गुरुदेव के चरण वहीं रुक गये। करुणार्द्र स्वर में गुरुदेव ने पूछा । “ऐसी कौनसी मुसीबत तुझ पर मंडरा रही है जिससे परेशान होकर तू अपने अमूल्य जीवन का अन्त करना चाहता है ?" बड़े ही आर्त स्वर में वह युवक बोला-"गुरुजी, मेरे पिता ने बहुत तकलीफ बर्दाश्त कर मुझे बी. ए. तक पहुँचाय।। मैंने भी डटकर अध्ययन किया, पेपर भी अच्छे हए, किन्तु कर्मों की माया। सारे उत्तर ठीक होते हुए भी कल जब नतीजा निकला तो अखबार में कहीं भी मेरा नामोनिशान नहीं था, अर्थात् मेरा रोल नम्बर ही नहीं था, आप ही वतायें प्रभु, ऐसी स्थिति में मैं कैसे, किसको मुंह दिखाऊँ ?" महाराज श्री ने सान्त्वना देते हुए कहा-“आश्चर्य और लज्जा की बात है कि एक माधारण असफलता से विचलित होकर तुम मरने के लिए तैयार हो गये; अगर कहीं इससे भी भारी विपत्ति आ जाए तो तुम उसे कैसे सहन करोगे ? तुम जैसे भीरु हृदय युवक से भारत माता क्या अपेक्षा करेगी? तुम उसके पैरों में जकड़ी गुलामी की जंजीरें कैसे काट सकोगे ? देखो वत्स ! आत्मघात किसी समस्या का समाधान नहीं है । तुम्हारे 'कर्मों की माया' सचमुच ही तुम्हारे साथ रहेगी, सफलता और विफलता कर्म की फलश्रुति है। अस्तु, बिना किसी उद्विग्नता के निष्ठापूर्वक और परिश्रम के साथ अपने कर्तव्य-पथ पर अग्रसर होते रहना ही पौरुष है ?" नितान्त बोधगम्य शैली में उस विद्यार्थी को बोध प्रदान करते हुए महाराज श्री कुछ क्षण आत्मस्थ रहने के पश्चात् आदेशात्मक स्वर में वोले-"वत्स ! अभी तू मेरे साथ सीधे शहर चल और कल का दैनिक पत्र देखकर फिर मेरे पास आना; सम्भव है तेरी समस्या का कोई समाधान सामने आ जाए।” वैसा ही हुआ, दूसरे दिन उप विद्यार्थी के आश्वर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उसने अपने रोल नम्बर को उसी दैनिक पत्र में भूल सुधार' नोट के साथ उत्तीर्ण सूची में देखा। युवक सीधे गुरुदेव के चरणों में उपस्थित हुआ और उसने आभार प्रकट करते हुए श्रीगुरुदेव को एक शुभेच्छु के रूप में बार-बार प्रणाम किया। अपने तृतीय श्रेणी में उत्तीर्ण होने के शुभ संवाद से भी उन्हें अवगत कराया जिन पर प्रसन्न होकर महाराज श्री ने आगे के लिए मार्गदर्शन दिया-"इस बात का हमेशा ध्यान रखना चाहिये कि हम क्षणिक आवेश में आकर कोई ऐमा कार्य न करें जिसे सभी परेशानी में पड़ जाएँ और तुम्हारे जैसे मेधावी तथा होनहार युवक को तो और भी सोच-विचार कर कोई कदम बढ़ाना चाहिये ।" “अब चाहे जैसी दुस्सह विपत्ति क्यों न आ जाए उससे निपट लूँगा, किन्तु भूलकर भी आत्महत्या नहीं करूँगा।” इस सुदृढ़ संकल्प के साथ वह उत्तीर्ण छात्र अपने गाँव की ओर चला गय! । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520603
Book TitleTirthankar 1977 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1977
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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