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विशाल वटवृक्ष स्व. पूज्यपाद श्री जैन दिवाकर चौथमलजी महाराज संसार को प्रकाश देनेवाले युगपुरुष थे। उनके जीवन की एक महान् विशेषता थी संगठन-प्रेम । आज जब हम इस महान् विभूति का जन्म-शताब्दि-समारोह मनाने जा रहे हैं तब हमारा कर्तव्य है कि हम अपने हृदय को पावन-पवित्र बनायें और संप्रदायवाद को जड़मूल से नष्ट करने का भरसक प्रयत्न करें। मेरे मत में उनके कार्यों को पूरा करना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। उनका व्यक्तित्व सामाजिक क्रान्ति का एक विशाल वटवृक्ष था, जिसकी शीतल छाँव आज भी हमें उपलब्ध है । क्या हम उनकी नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्रान्ति को अटूट रख पायेंगे?
-सौ. मंजुलाबेन अनिलकुमार बोटादरा, इन्दौर 'पानी में मीन पियासी, मोहे सुनि-सुनि आवै हांसी' श्रमण-सूर्य श्री चौथमलजी महाराज के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते समय एक प्रश्न बार-बार मन को मथता है-जैनधर्म, इस युग में, समस्त मानव-जाति के भौतिक विकास के लिए हो रही भाग दौड़ में किस हद तक प्रासंगिक है, और भौतिक प्रगति की इस भागमभाग में उसका क्या जीवन-दर्शन है ?
भौतिक स्थितियों में परिवर्तन और बड़े सुधारों पर किसी को भी क्या आपत्ति हो सकती है ? सारे विश्व की जनसंख्या एक अन्तहीन ढंग से बढ़ी है; किन्तु उसी के साथसाथ ज्ञान-विज्ञान और तकनीकों का भी विकास-विस्तार हुआ है । सो, आज हर देश में पहला बड़ा सवाल करोड़ों-करोड़ लोगों के लिए सुखमय जीवन-यापन की सुविधाएं मुहैया करना है। सबसे पहला सामाजिक कर्तव्य यही दिखायी देता है कि सब को एक स्वस्थ और सुखी जीवन संभव कराया जाए; रोटी, छत, चिकित्सा और शिक्षा के सारे अवसर उपलब्ध कराये जाएँ; तथा इन समस्त सामाजिक सुरक्षाओं और सुविधाओं का स्तर कमोवेश वही हो जो आज सुविकसित देशों का मानक है। इस दृष्टि से यह सोचना अप्रासंगिक नहीं है कि भौतिक ज़रूरतों को पाने के इस प्रयत्न में जैनधर्म की क्या भूमिका होगी; और जैनधर्म इन आवश्यकताओं की चिन्ता के समय कितना समीचीन और समायोजक सिद्ध होगा? ___ इसके बाद जो दूसरा सवाल गर्दन उठाता है, वह है भौतिक समृद्धि की ओर कदम बढ़ा रहे इन लाखों-लाख लोगों का जीवन-दर्शन क्या हो ? क्या इनकी दृष्टि में जैनधर्म की कोई उपयोगिता या प्रासंगिकता या सार्थकता हो सकती है ? ___सतही ढंग से बिना किसी गहराई में उतरे कहा जा सकता है कि जैनधर्म एक विशिष्ट युग की उपज है, अब वह समय बीत चुका है; संदर्भ पुराने हो चुके हैं अतः यह ठीक है कि वह अतीत में कभी उपयोगी और महान् रहा होगा, आज भला वह कैसे किसी काम का हो सकता है ?
तीर्थंकर । नव. दिस. १९७७
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